पोलैंड के नाज़ी यातना शिविर
- वंदना
- बीबीसी संवाददाता
इतिहास के पन्नों में कई हादसे, कई त्रासदियाँ दर्ज हैं लेकिन दूसरे विश्व युद्ध के दौरान पोलैंड में नाज़ियों के अधीन जो कुछ हुआ वैसी त्रासदी इतिहास ने शायद पहले कभी नहीं देखी थी.
इसके बारे में सुना था, पढ़ा था लेकिन पोलैंड में बनाए गए यातना शिविरों को रुबरू देखने के बाद मानो रोंगटे खड़े हो गए.
पोलैंड में बसा ऑस्वित्च शहर जर्मनों द्वारा बनाए यातना कैंपों में से सबसे बड़ा नेटवर्क है. 1939 में पोलैंड पर क़ब्ज़ा करने के बाद हिटलर ने 1940 में ऑस्त्विच के पास यातना शिविर बनवाया.
लोहे के जिस गेट से आप यातना शिविर के अंदर आते हैं उस पर लिखा है- आपका काम आपको आज़ादी दिलवाता है. लेकिन उस दौरान जो क़ैदी इस गेट के अंदर लाए गए उनमें से ज़्यादातर हमेशा-हमेशा के लिए ग़ुलाम हो गए..मौत ही उन्हें आज़ाद करवा पाई.
मौत का साया
आँकड़ों के मुताबिक 1942 से 1945 के बीच 10 लाख से ज़्यादा लोगों को पोलैंड के ऑस्त्विच कैंपों में बने गैस चैंबरों में या तो ज़िंदा मार दिया गया. या भूख और अनगिनत यातनाओं ने उन्हें मार दिया. इनमें से ज़्यादातर यहूदी थे.
ऑस्वित्च के पास बिरकिनायू कैंप में बना एक दरवाज़ा आपका ध्यान ज़रूर खींचता है. इसे गेट ऑफ़ डेथ कहते हैं...मौत का दरवाज़ा.
शिन्डलर्स लिस्ट जैसी फ़िल्मों में आपने इस दृश्य को ज़रूर देखा होगा. हिटलर के अधीन नाज़ियों के कब्ज़े वाले यूरोप से गाड़ियों में भर के भर के इसी दरवाज़े से लोगों को शिविर में लाया जाता था.
बर्फ़ से ढकी यहाँ की विरानगी और सन्नाटे के बीच खड़े होकर आप उस मंज़र की कल्पना भर ही कर सकते हैं.
इस यातना शिविर में मानो हर दरो-दीवार मौत से जुड़ा हुआ है. शिविर का दौरा करवा रही गाइड ने बताया कि ब्लॉक 10 और 11 के बीच बनी एक ख़ास दीवार के सामने क़ैदियों को गोली मारी जाती थी- कई बार नंगे खड़े कर, बर्फ़बारी के बीच. इस वॉल ऑफ़ डेथ कहा जाता है.
टूटी हुई गुड़िया.....
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ऑस्त्विच में बने म्यूज़ियम में करीब दो टन सर के बाल रखे हुए हैं. कहा जाता है कि बंदियों को मारने से पहले उनके बाल काट लिए जाते थे जिसका इस्तेमाल नाज़ी कपड़े बनाने के लिए करते थे.
गाइड ने बताया कि कैंप में लाए गए बंदियों के टूटे, चश्मे, सूटकेस यहाँ तक कि अपाहिज लोगों के कृत्रिम लिंब भी मारने से पहले छीन लिए जाते थे. कुछ टूटे बरतन किसी गृहणी की पीछे छूटी गृहस्थी की दास्तां सुनाते हैं तो एक टूटी हुई गुड़िया किसी मासूम के छिने बचपन की कहानी सुनाती है.
इन शिविरों में यातनाओं के बीच जहाँ ज़िंदगी दम तोड़ देती थी, कुछ क़ैदियों ने कला को मरने नहीं दिया. शिविर से मिले कला के कुछ नमूने इसका उदाहरण हैं.
नम आँखें
जनवरी 1945 में जब नाज़ियों को अपनी हार का आभास हो चुका था और सोवियत सेना ऑस्त्विच के करीब पहुँच गई तो यातना शिविरों का नामोनिशान मिटाने के लिए कई गैस चैंबरों को नष्ट कर दिया गया था.
आज बचे हैं तो कुछ खंडहर, कुछ इमारतें, कुछ तस्वीरें, दस्तावेज़ और स्मारक....
पोलैंड में जिन यहूदी इलाक़ों में कभी चहल-पहल रही होगी वहाँ आज घरों की जगह टूटी फूटी ईंट-पत्थर के मकान बचे हैं. परिजन आकर अपने पूर्वजों की बड़ी-बड़ी तस्वीरें लगा जाते हैं.
यहाँ से पलायन कर चुके कई लोग अपने जड़ें तलाश करने यहाँ आते हैं तो कुछ अपनों को याद करने...नम आँखों के साथ और शायद दिल में ये दुआ कि ये इतिहास कभी दोहराया न जाए.