75 साल बेमिसाल: 1991 में अर्थव्यवस्था बेपटरी होने पर भारत ने व्यापक सुधारों के साथ आर्थिक संकट का दिया था जवाब

आजादी का अमृत महोत्सव: करीब 3 दशक पहले, 1991 में भारत में ऐसा दौर भी आया जब बेपटरी हो रही अर्थव्यवस्था के बीच भारत ने आर्थिक उदारीकरण की पहल की. अर्थव्यवस्था को लेकर व्यापक सुधार किए और भारत ने आर्थिक संकट का जवाब दिया...

75 साल बेमिसाल: 1991 में अर्थव्यवस्था बेपटरी होने पर भारत ने व्यापक सुधारों के साथ आर्थिक संकट का दिया था जवाब
1991 में भारत में ऐसा दौर भी आया जब बेपटरी हो रही अर्थव्‍यवस्‍था के बीच भारत ने आर्थिक उदारीकरण की पहल की.Image Credit source: TV9 GFX
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| Updated on: Aug 12, 2022 | 5:48 PM

करीब 3 दशक पहले, 1991 में भारत में ऐसा दौर भी आया जब बेपटरी हो रही अर्थव्यवस्था के बीच भारत ने आर्थिक उदारीकरण की पहल की. यह ऐसा समय था जब व्यापार और उद्योग में उदारीकरण को जरूरी माना गया. अर्थव्यवस्था को लेकर व्यापक सुधार किए और भारत ने आर्थिक संकट का जवाब दिया. दरअसल, भुगतान संतुलन की गंभीर समस्या के कारण देश में 1991 में आर्थिक संकट पैदा हुआ था. इसका सीधा असर देश में उद्योग जगत पर पड़ा.

टीवी9 भारतवर्ष भारत के आजादी वर्ष 1947 से लेकर 2022 तक की यात्रा पर लेकर जा रहा है, जिसमें बता रहा है कि किस-किस साल में भारत ने क्या ऐतिहासिक कार्य किया. इस क्रम में आज बात साल 1991 की.

नई आर्थिक रणनीति लागू की गई

आर्थिक संकट का समाधान करने के लिए भारत ने प्रयास शुरू किए. नई आर्थिक रणनीति अपनाई. जैसे- परमिट सिस्टम को खत्म किया गया. राज्यों की भूमिका तय की गई. नतीजा, 21वीं सदी के पहले 10 सालों में यह भारत की गिनती उभरते हुए बाजारों में की जाने लगीं. सरकार ने बदलाव के जो कदम उठाए उसे भारतीय उद्यमों को राहत मिली. देश की अर्थव्यवस्था को गति मिली और गरीबी की दर में कमी आई.

ऐसे दौर से गुजर रहा था था

1991 में घरेलू मांग के कारण संकट बढ़ा था, जिसके कारण चालू खाता घाटे में इजाफा हुआ था. उस दौर में देश को राजकीय कर्ज में बचाने के लिए टनों सोना गिरवी रखा गया था. भारत जो आयात कर रहा था उसका भुगतान करने के लिए उसे विदेशी मुद्रा करीब-करीब खत्म हो गई थी. इसके लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक से मदद मिली.

ऐसी स्थिति क्यों बनी थी

मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, 1950 से देश में देश में सोवियत मॉडल को लागू किया गया. यह ऐसा मॉडल था जिसमें देश की सरकार ही औद्योगिक उत्पादों की मात्रा और कीमतें तय करती थीं. जबकि आमतौर पर बाजार तय करता है कि कौन से उत्पाद का कितना निर्माण करना है. बाजार का काम देश में नौकरशाह और अर्थशास्त्रियों का समूह करने लगा.

यही समूह तय करने लगा कि देश में कितनी कार और स्कूटर का निर्माण होगा? दूसरे देशों से कितने कच्चे माल का निर्यात किया जाएगा? किस चीज का उत्पादन कितना होग और उसे किस कीमत पर बेचा जाएगा. राजस्व बढ़ाने के लिए सरकार ने टैक्स में बढ़ोतरी की. कर्ज देना शुरू किया. नतीजा मुद्रास्फीती और कीमतों में बढ़ोतरी होती है. इस तरह संकट गहराता गया.

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