मार्च महीने में माओवादियों के तथाकथित मुख्यालय अबूझमाड़ से छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर तक दोनों पक्षों से बातचीत कर इस समस्या को सुलझाने का प्रयास करने का आग्रह करने के लिए एक पदयात्रा हुई थी। पदयात्रा के समय माओवादियों ने जो पत्र भेजा था उसका शीर्षक था, ‘यह वार्ता नहीं आंदोलन का समय है’। उसके बाद वे बातचीत के लिए तीन शर्त देते हैं और उनमें से मानी जा सकने वाली शर्त में किसको छोड़ा जा सकता है, उसका नाम भी बताते हैं। शुरू में माओवादी बस्तर के जंगलों में छुपने आए थे, जहां से वे उन इलाकों में जा सकें, जहां क्रांति हो सकती है। बस्तर के लोग उनके खिलाफ न हो जाएं, इसलिए वे उनके मुद्दों जैसे वनोपज के सही दाम दिलाने के साथ आदिवासियों से दुव्र्यवहार जैसे मुद्दों पर भी काम करते थे।
सरकार का भी एक धड़ा हर दो साल में माओवादी आंदोलन के समापन का सपना देखता रहता है। पिछले साल हुए एक जनमत सर्वेक्षण में 92 प्रतिशत लोगों ने यह मत दिया कि बातचीत से इस समस्या के समाधान का प्रयास किया जाए। यह समय है कि जब हम सभी को यह प्रयास करना चाहिए कि दोनों पक्ष जनता की भावना का सम्मान करते हुए गम्भीरता से बातचीत कर इस समस्या के समाधान के लिए प्रयास करें। मध्य भारत में बातचीत के लिए इससे पहले दो प्रयास हो चुके हैं, पर दोनों सफल नहीं हुए। हमें उन विफलताओं से सीखने की जरूरत है। यह समय बातचीत के लिए अधिक उपयुक्त दो कारणों से है। पहला, बस्तर के जंगल में रहने वाले लोग भी अब शांति चाहते हैं और माओवादी आंदोलन से लगातार बाहर निकल रहे हैं। ऐसा आज से 5 साल पहले नहीं था। दूसरा, माओवादी नेतृत्व अब बूढ़ा हो गया है और वह राजनीतिक नेतृत्व की दूसरी पीढ़ी नहीं बना पाया है। उसने लडऩे वाले खूब तैयार किए हैं, पर आदिवासी राजनीतिक नेता एक भी नहीं।
आशंका यह है कि अगर अभी बातचीत के प्रयास नहीं किए गए, तो बाहरी माओवादी नेताओं के बाद आदिवासी माओवादी बहुत से धड़ों में बंट कर आपस में ही लडं़ेगे। पुलिस बेसब्री से उस दिन की राह देख रही है, जब वे एक धड़े को पैसा देकर दूसरे धड़े को खत्म करने का काम देंगे, पर इस खून-खराबे में लोगों का क्या हाल होगा, यह सोचकर भी डर लगता है। बातचीत का यह मौका न खोएं, इसके लिए गंभीर प्रयास करने चाहिए।
(लेखक मध्य भारत के आदिवासी क्षेत्रों में सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता हैं)