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जाति जनगणना आखिर हो क्यों नहीं जाती?

केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार जाति जनगणना से पीछे हटने के लिए पिछली सरकारों की दलीलों का सहारा ले रही है, हालांकि इसके राजनैतिक नफा-नुक्सान भी उसे उठाने पड़ सकते हैं.

काम की गिनती  तेलंगाना में अगस्त 2014 के दौरान एकीकृत पारिवारिक सर्वे के तहत एक परिवार की जानकारी जुटाते कर्मचारी
काम की गिनती तेलंगाना में अगस्त 2014 के दौरान एकीकृत पारिवारिक सर्वे के तहत एक परिवार की जानकारी जुटाते कर्मचारी
अपडेटेड 29 मई , 2023

कर्नाटक विधानसभा चुनावों के दौरान 16 अप्रैल को कोलार की जनसभा में कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने जाति आधारित जनगणना की मांग उठाते हुए एक नारा दिया था—जितनी आबादी, उतना हक.

इसके साथ उन्होंने केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार पर आरोप लगाया कि 'सबका साथ, सबका विकास‘ की बात करने वाली सरकार सभी जातियों का सही विकास सुनिश्चित करने के लिए जाति आधारित जनगणना कराने के खिलाफ है. राहुल गांधी का यह नारा कांशीराम के नारे 'जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ की याद दिलाता है.

भारत में जनगणना के जो आंकड़े उपलब्ध हैं, उनमें यह आंकड़ा उपलब्ध नहीं है किस जाति के कितने लोग हैं. अभी जो जनगणना होती है, उससे यह तो पता चलता है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के कितने लोग हैं. लेकिन यह पता नहीं चलता कि अन्य पिछड़ा वर्ग के कितने लोग हैं और विभिन्न वर्गों के अंदर किस जाति की कितनी आबादी है.

विपक्षी पार्टियां लंबे समय से 2021 की जनगणना को जाति के आधार पर कराने की मांग कर रही हैं. हालांकि केंद्र सरकार ने 2021 की जनगणना के लिए जो दिशानिर्देश जारी किए हैं, उनसे साफ है कि इस मांग को नहीं माना गया. 

जाति आधारित जनगणना के साथ-साथ अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों की गिनती भी अलग से करने की मांग की जा रही है. लेकिन केंद्र ने इस मांग को भी खारिज कर दिया. हालांकि 2018 में मोदी सरकार ने अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों की गिनती कराने की बात कही थी. वहीं 2021 में केंद्र सरकार ने जनगणना कराने के लिए जिला स्तर तक के अधिकारियों को एक हैंडबुक भेजी गई थी.

इसमें केंद्र सरकार ने अंदेशा जताया था कि अन्य पिछड़ा वर्ग की गणना कराने के लिए विरोध प्रदर्शन हो सकते हैं. यहां ध्यान देने वाली बात है कि केंद्र सरकार 2021 की जनगणना को कोरोना का हवाला देकर टालती रही है. मौजूदा स्थिति यह है कि 30 सितंबर, 2023 के बाद जनगणना के लिए घरों को सूचीबद्ध करने का काम शुरू होगा.

केंद्र के इनकार के बावजूद विपक्षी दलों की तरफ से जाति आधारित जनगणना का मुद्दा लगातार उठाया जा रहा है. इस बात की पूरी संभावना है कि लोकसभा चुनाव नजदीक आते-आते, विपक्षी दल इस मुद्दे को जोर-शोर से उठाएंगे. बिहार में नीतीश कुमार की सरकार ने प्रदेश में जाति के आधार पर लोगों की गिनती शुरू भी करा दी थी. इस पर उच्च न्यायालय ने रोक लगा दी है.

देश में आखिरी जातिगत जनगणना 1931 में हुई थी. 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हुआ. इस वजह से 1941 की जनगणना समय पर नहीं हो पाई. फिर जो जनगणना हुई, उसमें समय के अभाव के चलते अलग-अलग जाति के आधार पर जनगणना नहीं हुई.

जाति जनगणना के सवाल पर सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार ने जो हलफनामा दायर किया है, उसके मुताबिक आजादी के बाद 1951 की जनगणना के लिए पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने यह नीतिगत निर्णय लिया था कि अब जाति आधारित जनगणना नहीं होगी.

नेहरू सरकार की दलील थी कि आजाद भारत में जाति आधारित भेदभाव को खत्म करना है, इसलिए जाति आधारित जनगणना कराने की जरूरत नहीं है. इसी बात को मौजूदा केंद्र सरकार ने अपने हलफनामे में दोहराते हुए अपना आधिकारिक रुख स्पष्ट किया. हलफनामे में केंद्र सरकार ने यह भी कहा कि जाति जनगणना कराने की नीति 1951 में ही छोड़ दी गई है, इसलिए अब इसे करना व्यावहारिक नहीं है. 

1990 के दशक में जब केंद्र में एच.डी. देवेगौड़ा के नेतृत्व वाली सरकार थी तो इसने जातिगत जनगणना कराने की बात कही थी लेकिन यह सरकार कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई. 2001 की जनगणना फिर से पुराने ढंग से हुई और जाति के आधार पर लोगों की गिनती नहीं की गई. जब 2011 की जनगणना होने वाली थी तो उसके पहले फिर से जाति आधारित जनगणना कराने की मांग उठी.

उस वक्त केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार थी. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे. मामला संसद में उठा. सरकार ने इस मामले में उस समय के वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता में एक मंत्री समूह का गठन कर दिया. इस मंत्री समूह ने निर्णय लिया कि जाति आधारित जनगणना कराना ठीक नहीं है.

अब जब कांग्रेस भाजपा पर जाति आधारित जनगणना नहीं कराने का आरोप लगाती है तो भाजपा 2010 की इसी घटना का हवाला देकर कहती है कि कांग्रेस ने भी तब जाति जनगणना का विरोध किया था.

हालांकि, 2011 में जब इन मांगों ने जोर पकड़ा तो यूपीए सरकार ने सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना (एसईसीसी) कराने का फैसला किया. इसमें हर परिवार की जाति और उसकी सामाजिक आर्थिक स्थिति को दर्ज किया गया. आंकड़े जुटाने का काम ग्रामीण क्षेत्रों में ग्रामीण विकास मंत्रालय ने किया और शहरी क्षेत्रों में शहरी विकास मंत्रालय ने.

इन आंकड़ों को कभी सार्वजनिक नहीं किया गया लेकिन इन आंकड़ों का इस्तेमाल केंद्र सरकार की विभिन्न योजनाओं के लाभार्थियों के चयन के लिए किया गया.

केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में जो हलफनामा दायर किया है उसमें कहा है कि एसईसीसी, 2011 का जो डेटा जुटाया गया है, उसमें कई तकनीकी खामियां हैं और इस वजह से इसे सार्वजनिक नहीं किया जा सकता. हलफनामे में कहा गया है कि डेटा माइक्रोसॉफ्ट एक्सेल फॉर्मेट में था, जिसे बड़े डेटा एनालिसिस में इस्तेमाल होने वाले दूसरे सॉफ्टवेयर माइएसक्यूएल में ट्रांसफर किया गया.

लेकिन इसके बाद इसमें कई खामियां पाई गईं. इसमें जातियों की संख्या बहुत अधिक दर्ज की गई है. अगर महाराष्ट्र का उदाहरण लें तो सरकारी आंकड़ों के मुताबिक प्रदेश में 497 जातियां हैं. लेकिन एसईसीसी के आंकड़े बताते हैं कि प्रदेश में 4.28 लाख जातियां हैं. इनमें से 99 फीसद ऐसी हैं, जिनमें 100 से भी कम लोग हैं.

1931 में जब आखिरी जाति आधारित जनगणना हुई थी तो देश में जातियों की संख्या 4,147 थी. लेकिन एसईसीसी-2011 में दर्ज जातियों की संख्या 46 लाख से अधिक है. 1931 से लेकर 2011 के बीच जातियों के अंदर विभाजन से यह संख्या बढ़ी जरूर होगी लेकिन 1,000 गुणा से अधिक बढ़ गई होगी, यह तथ्य किसी के गले नहीं उतरेगा. 

फिर ऐसा क्यों हुआ? इस पर तर्क देते हुए सरकार ने अपने हलफनामे में कहा कि डेटा जुटाने के लिए जितने लोग फील्ड में गए, उतने लोगों ने एक ही जाति की अलग-अलग स्पेलिंग दर्ज की. हलफनामे में सरकार ने बताया है कि केरल के मालाबार क्षेत्र की मापिला जाति को 40 अलग-अलग स्पेलिंग के साथ दर्ज किया गया है. ऐसी ही घटना दूसरी जातियों के साथ भी हुई. सरकार का तर्क है कि इन खामियों की वजह से एसईसीसी के डेटा को सार्वजनिक नहीं किया जा सकता. 

क्या इन खामियों को दूर करके केंद्र सरकार जाति आधारित जनगणना नहीं करा सकती थी? इस बारे में इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पॉपुलेशन साइंसेज के माइग्रेशन ऐंड अर्बन स्टडीज के विभागाध्यक्ष रहे प्रोफेसर आर.बी. भगत कहते हैं, ''सरकार अगर चाहती तो विशेषज्ञों को साथ लेकर इन समस्याओं को दूर किया जा सकता था. ऐसी वैज्ञानिक पद्धति विकसित की जा सकती थी जिनमें एसईसीसी—2011 जैसी समस्याएं न हों.’’

अगर तकनीकी खामियों को दूर करना संभव है तो फिर आखिर ऐसी क्या वजहें जो सरकार को जाति आधारित जनगणना कराने से रोक रही हैं? इस बारे में कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव जयराम रमेश कहते हैं, ''केंद्र सरकार की कुछ राजनैतिक बाध्यताएं होंगी.

जाति हमारे समाज की एक सच्चाई है और जब तक यह पता नहीं चलेगा कि अलग-अलग जातियों की स्थिति क्या है, तब तक उनकी स्थिति बेहतर बनाने का काम प्रभावी ढंग से नहीं चल सकेगा. इससे अलग-अलग जातियों की सिर्फ संख्या की ही जानकारी नहीं मिलेगी बल्कि उनकी आमदनी, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे मोर्चों पर भी उनकी स्थिति का पता चलेगा.’’

जनता दल यूनाइटेड से राज्यसभा सांसद रहे और ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज के संस्थापक अली अनवर जाति से जुड़े विषयों पर लंबे समय से काम कर रहे हैं. जाति आधारित जनगणना पर सरकार के कन्नी काटने के सवाल पर वे कहते हैं, ''जाति के आंकड़े सामने आने पर राजनीति जाति के आसपास केंद्रित हो जाएगी और धर्म का मुद्दा कमजोर पड़ जाएगा.

भाजपा कभी नहीं चाहेगी कि ऐसा हो. इसलिए मोदी सरकार जाति आधारित जनगणना ही नहीं करा रही. साथ ही जाति आधारित जनगणना से भाजपा के 'सबका साथ, सबका विकास’ के दावे की पोल भी खुल जाएगी. क्योंकि जिन पिछड़ों के वोट के दम पर भाजपा जीत रही है, उनकी स्थिति तो जस की तस बनी हुई है.’’

केंद्र की सत्ताधारी पार्टी भाजपा के अंदर भी जाति जनगणना को लेकर दो तरह की राय है. पार्टी में हाल के सालों में उभरे ओबीसी नेताओं का एक वर्ग जाति जनगणना के पक्ष में है. उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने सार्वजनिक तौर पर जाति जनगणना का समर्थन किया.

इस बारे में नाम नहीं उजागर करने की शर्त पर एक केंद्रीय मंत्री कहती हैं, ''जाति जनगणना से आरक्षण के अलावा अन्य योजनाओं का लाभ सही लाभार्थियों तक पहुंचाने में सुविधा होगी. साथ ही सरकार को पता चल पाएगा कि किस-किस वर्ग की किन जातियां सरकार के कदमों का लाभ ले पाने से कितनी वंचित हैं. रोहिणी आयोग की रिपोर्ट आने के बाद सरकार के स्तर पर इस मामले में और स्पष्टता आने की उम्मीद है.’’

जाति आधारित जनगणना से सरकार के बचने के पीछे एक वजह यह भी बताई जा रही है कि आरक्षण की मांग नए सिरे से उठने लगेगी, क्योंकि बहुत सारी जातियां ऐसी हैं जिन तक आरक्षण का लाभ नहीं पहुंच पा रहा. सरकार ने इस विषय की पड़ताल के लिए रोहिणी आयोग का गठन किया है.

31 जुलाई, 2023 तक आयोग को अपनी रिपोर्ट सौंपनी है. वहीं अन्य पिछड़ा वर्ग आरक्षण को लेकर यह कहा जाता है कि यह इसकी आबादी के आनुपातिक नहीं है. 1931 की जनगणना के मुताबिक, ओबीसी आबादी 52 प्रतिशत थी. अभी इस वर्ग को 27 फीसद आरक्षण मिल रहा है. जाति आधारित जनगणना में अगर ओबीसी की आबादी 27 फीसद से अधिक पाई जाती है तो आरक्षण की सीमा बढ़ाने की मांग उठना स्वाभाविक है.

अगर आबादी के अनुपात में सरकार में विभिन्न पदों पर और शैक्षणिक संस्थानों में एससी, एसटी और ओबीसी जातियों का प्रतिनिधित्व नहीं पाया जाता है तो यह भी एक बड़ा राजनैतिक मुद्दा बनेगा. जाहिर है कि भाजपा 2024 के लोकसभा चुनावों के पहले नहीं चाहेगी कि उसे इन मुद्दों का सामना करना पड़े. 

बिहार में जातियों का सर्वे क्यों रुका

बिहार में जाति जनगणना का काम जनगणना कानून के तहत नहीं हो रहा था, इसलिए इसे तकनीकी तौर पर जाति आधारित जनगणना नहीं बल्कि जाति आधारित सर्वे कहा गया. नीतीश सरकार के इस फैसले के खिलाफ कुछ सामाजिक संगठनों और कुछ अन्य लोगों ने अदालत का दरवाजा खटखटाया और 4 मई को पटना हाइकोर्ट ने इस पर रोक लगा दी.

अब बिहार सरकार ने से इसे फिर शुरू करने के लिए सुप्रीम कोर्ट का रुख किया है. बिहार सरकार के जाति आधारित सर्वे पर रोक लगाते हुए हाइकोर्ट ने कहा कि यह सर्वे जिस तरह से किया जा रहा है, उसे देखकर यह लगता है कि जनगणना की जा रही है और जनगणना कराने का अधिकार केंद्र सरकार के पास है, राज्य सरकार के पास नहीं.

भारत के संविधान के अनुच्छेद—246 और सातवीं अनुसूची में केंद्र और राज्यों के बीच विषयों का जो बंटवारा है, उसमें केंद्र की सूची में 69वें नंबर पर जनगणना को दर्ज किया गया है. साथ ही जनगणना कानून, 1948 के तहत भी यह जिम्मेदारी केंद्र सरकार को सौंपी गई है.

सर्वे के लिए बिहार सरकार ने जो दिशानिर्देश जारी किए हैं, उनमें लिखा है कि जो आंकड़े सामने आएंगे, उसे बिहार विधानसभा में सत्ताधारी और विपक्षी दलों के साथ साझा किया जाएगा. हाइकोर्ट ने इस प्रावधान को 'निजता के अधिकार’ के लिए चिंताजनक बताया. उल्लेखनीय है कि 7 जनवरी को बिहार में जाति आधारित सर्वे की शुरुआत हुई थी और इसे 15 मई तक पूरा किया जाना था.

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