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माओवादी: आखिरी लड़ाई

देश की आंतरिक सुरक्षा पर मंडरा रही सबसे संजीदा यानी माओवादी लड़ाकों की चुनौती तेजी से ढलान पर.

माओवादी संकट
माओवादी संकट
अपडेटेड 4 मई , 2017
एक महीने से कुछ ज्यादा वक्त के फासले पर घात लगाकर किए गए दो हमले माओवादियों को कम करके आंकने के खतरों को बयान करते हैं. सड़क खोलने के काम के लिए बनाई गई सीआरपीएफ की 76 जवानों की एक टुकड़ी को 24 अप्रैल के दिन छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले के बुरकापाल में माओवादियों की दो ‘कंपनियों’ के 300 से ज्यादा गुरिल्लों ने घेर लिया और उन पर बुरी तरह टूट पड़े. निशाने साधकर की गई अंधाधुंध गोलीबारी में सीआरपीएफ के 25 जवान मारे गए.

अप्रैल 2010 के बाद यह उनका सबसे भीषण और मारक हमला था. उस वक्त उन्होंने दंतेवाड़ा जिले के चिंतलनार में इसी तरह घात लगाकर किए गए हमले में सीआरपीएफ के 75 जवानों को मौत के घाट उतार दिया था. उसके बाद पिछले 11 मार्च को भी जिला मुख्यालय सुकमा से 20 किमी दूर भेज्जी में माओवादियों ने सीआरपीएफ के 12 जवानों को गोलियों से भून दिया था.

छिपकर किए गए ये दोनों हमले उस सुकमा में किए गए जो माओवादियों का गढ़ है. उग्रवादी इसे अपना सालाना टैक्टिकल काउंटर ऑफेंसिव कैंपेन (टीसीओसी) कहते हैं. दोनों हमले मार्च और जून के दरमियान किए गए जब उनकी ताकत अपने चरम पर होती है और सुरक्षा में जरा भी ढिलाई पर वे लगातार पैनी नजर रखते हैं. मिसाल के लिए, बुरकापाल में उन्होंने धावा ठीक उस वक्त बोला जब जवान दोपहर के खाने के लिए मोर्चे पर नहीं थे. महज छह हफ्तों के भीतर ये 37 मौतें सरकार के लिए एक झटका हैं. खासकर जब सरकार पिछले साल माओवाद से जुड़ी हिंसा में आई हैरतअंगेज कमी का जश्न मना रही थी.

इस साल 17 मार्च को केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने लोकसभा को बताया था कि वामपंथी उग्रवाद (एलडब्ल्यूई) से प्रभावित जिलों की तादाद 106 से घटकर 68 रह गई थी. उनमें से 35 ÒÒसबसे ज्यादा प्रभावितÓÓ जिले आंध्र प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और महाराष्ट्र में थे.

पिछले चार महीनों में देश के छह राज्यों में 158 लोग—माओवादी, आम लोग और सुरक्षाकर्मी—मारे गए हैं. ये मौतें चाहे कितनी भी भयंकर क्यों न हों, लेकिन इनसे उस धारा में ज्यादा बदलाव की संभावना नहीं है जो धीरे-धीरे वामपंथी उग्रवाद के खिलाफ मुड़ती जा रही है. अप्रैल, 2006 में जिसे तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने चेतावनी देते हुए ÒÒदेश के सामने मौजूद आंतरिक सुरक्षा के लिए अब तक का एक ही सबसे बड़ा खतराÓÓ बताया था, वह भीषण खतरा अपने को बचाने के लिए हाथ-पैर मार रहा है.

माओवादियों में चकित करने की क्षमता जरूर है, लेकिन वे देश की राजसत्ता को नेस्तनाबूद कर देने की इस लड़ाई में धीरे-धीरे जमीन और पैदल सिपाही गंवाते जा रहे हैं. छत्तीसगढ़ में ही, जहां उनकी सबसे ज्यादा मौजूदगी है, ज्यादातर दक्षिणी जिलों में, माओवादियों के कब्जे वाले इलाके सिकुड़कर महज 5,000 वर्ग किमी से कुछ ज्यादा रह गए हैं, जबकि एक दशक पहले 20,000 वर्ग किमी इलाकों पर उनका कब्जा था.

2010 में नक्सली हिंसा में 1,180 लोग मारे गए थे—न केवल ये 1999 की करगिल जंग में मारे गए हिंदुस्तानी सिपाहियों की तादाद के दोगुने से भी ज्यादा थे, बल्कि इतने ज्यादा थे कि इसे उच्च-तीव्रता की लड़ाई कहा जा सकता था. तब से नक्सलवाद से जुड़ी हिंसा में मरने वालों की तादाद पिछले साल अब तक की सबसे कम महज 161 तक नीचे आ गई थी. यह वामपंथी उग्रवाद के 15 साल में ऐसी सबसे तेज गिरावट है (ग्राफिक देखेः हर ओर से घिरी बगावत). मगर उस पड़ाव से हम अब भी वर्षों दूर हैं जिसे सुरक्षा विशेषज्ञ मिशन पूरा होने का ऐलान करने की पूर्वशर्त कहते हैं यानी—वामपंथी उग्रवाद से जुड़ी किसी भी घटना से मुक्त एक पूरा साल.

अबूझमाड़ के दुर्गम पहाड़ी जंगल, जो छत्तीसगढ़ के धुर दक्षिणी जिलों बीजापुर, नारायणपुर और दंतेवाड़ा के तकरीबन 4,000 किमी के भूभाग में फैले हैं, माओवाद का मुख्य गढ़ हैं. वामपंथी उग्रवादियों की सबसे बड़ी तादाद यहीं इकट्ठा है और इन्हीं घने जंगलों में वे अपनी समानांतर सरकार चलाते हैं जिसे वे ‘ जनताना सरकार’ कहते हैं. लेकिन सबसे अहम जगह है सुकमा जिसकी सरहद आंध्र प्रदेश और ओडिशा से सीधे मिलती है और जिसे एक बड़े सरकारी अफसर ‘माओवादी हुकूमत की असल राजधानी’ कहते हैं. तीन राज्यों के मुहाने पर बसा सुकमा माओवादियों और उनके साजो-सामान के लिए दूसरे राज्यों में आवाजाही का बेहद अहम सुरक्षित रास्ता मुहैया करता है.

इस जिले की सरहदों पर दो और वामपंथी उग्रवाद से प्रभावित जिले बसे हैंकृओडिशा का मलकानगिरि और तेलंगाना का भद्राद्री कोथागुडेम जिला. तेलंगाना और आंध्र प्रदेश की सरहद से लगा छत्तीसगढ़ और ओडिशा के सटे हुए इलाकों का यह त्रिसंगम माओवादियों की रीढ़ की तरह है. यह उनके लिए महफूज जन्नत का काम करता है, जिसकी कुछ वजह यह भी है कि तकरीबन सभी बुढ़ाते माओवादी नेता तेलुगु बोलने वाले राज्यों के हैं. यहां हर जगह उनके हमदर्दों का जाल फैला हुआ है. किलेबंदी और दवा-दारू में मदद के लिए उग्रवादी लड़ाके इन्हीं पर मुनहसर करते हैं.

माओवादियों का आंगन सुकमा ही है जहां वे सबसे वहशी जंग लड़ रहे हैं, उस चीज के खिलाफ जिसे वह अपना सबसे बड़ा खतरा मानते हैं और वह हैः सड़क. 11 मार्च का हमला उन जवानों पर हुआ था जो बेंजी-इंजीरम सड़क की हिफाजत कर रहे थे और 24 अप्रैल का हमला उन टुकडिय़ों पर किया गया जो 56 किमी के दोरनापाल-जगरगुंडा रोड के निर्माण के काम में लगे लोगों की हिफाजत कर रही थीं. छत्तीसगढ़ के दक्षिणी जिलों में राज्य सरकार 400 किमी लंबी सड़कों का जाल बिछा रही है, इस पर पिछले कई सालों में माओवादियों ने सड़कों को खोद डाला है, बारूदी सुरंगें बिछाई हैं और पुल-पुलियों को धमाकों से उड़ाया है.

केंद्रीय गृह मंत्रालय के एक बड़े अफसर कहते हैं, ‘‘ सड़कें विकास लाती हैं और सुरक्षा बलों की तैनाती की रक्रतार भी बढ़ा देती हैं. इनसे उन्हें जगह और वक्त का वह फायदा नहीं मिल पाता जो ऊबड़-खाबड़ इलाकों में माओवादियों को मिलता है.’’ महज इन दो सड़कों के बन जाने से माओवादी इलाका छोटी-सी पट्टी तक महदूद रह जाएगा और इससे उनके प्राथमिक रक्षा कवच यानी—पहुंच से दूर होने—पर आंच आएगी.

माओवादियों के खिलाफ लड़ाई बेहद अहम मोड़ पर है. ठीक यहीं केंद्र की गफलत हैरान करने वाली है. माओवादियों के खिलाफ लड़ाई के तरीके में न तो कोई बुनियादी बदलाव आया है और न रणनीतिक कमियों को दूर करने के लिए कोई कदम उठाया गया है. माओवादियों से लडऩे वाला मुख्य बल सीआरपीएफ ही है, लेकिन फरवरी से नई दिल्ली में उसका पूरे वक्त का कोई महानिदेशक ही नहीं था. सीआरपीएफ नीति, साजो-सामान, मानव बल और प्रशिक्षण की तंगियों से लाचार है. इसका नतीजा यह हुआ कि सीआरपीएफ को देश में माओवादियों के आखिरी गढ़ों में से एक में बिना तैयारी और साजो-सामान के बगैर टुकडिय़ों को भेजना पड़ा.

घात लगाकर हमले का निशाना बनाए गए सीआरपीएफ के जवानों के पास उन उपकरणों में से एक भी नहीं था जिनकी बहुत पहले 2012 में गृह मंत्रालय की आधुनिकीकरण योजना में सिफारिश की गई थी. 2017 के बजट में गृह मंत्रालय को तकरीबन 83,000 करोड़ रु. दिए गए, जिसमें से 17,868 करोड़ रु. 3,00,000 जवानों वाले उसके सबसे बड़े सुरक्षाबल सीआरपीएफ को गए. जिन साजो-सामान की मंजूरी दे दी गई पर खरीदे नहीं गए—माइन प्रोटेक्टेड व्हीकल (एमपीवी) से लेकर ड्रोन तक और थर्मल इमेजर से लेकर जमीन को भेदने वाली राडार तक—उनकी फेहरिस्त हर साल गुजरने के साथ और लंबी होती जाती है (ग्राफिक देखेः मोर्चे पर बिना कवच).

सुकमा की टुकडिय़ों के पास अतिरिक्त साजो-सामान भी नहीं था—डॉग स्क्वैड या एमपीवी—जिससे उन्हें घात लगाकर छिपे बैठे माओवादियों का पता लगाने या उन्हें रोकने मे मदद मिल पाती. सीआरपीएफ को 352 एमपीवी (जिसमें एक की कीमत 1 करोड़ रु. है) का बेड़ा खरीदने के लिए अधिकृत किया गया है, पर उसके पास ऐसे महज 120 वाहन ही हैं. इस सुरक्षाबल के पास माओवाद से प्रभावित इलाकों में कोई वर्कशॉप भी नहीं है, लिहाजा इन वाहनों में से कम से कम 40 फीसदी हमेशा बेकार ही पड़े रहते हैं.

कहीं ज्यादा बड़ी ङ्क्षचता की बात मानव बल से जुड़े मुद्दे हैं. पिछले तीन साल में सीआरपीएफ के तकरीबन 7,000 कर्मी नौकरी छोड़कर चले गए. इनमें 1,085 इंस्पेक्टर, सब-इंस्पेक्टर और असिस्टेंट सब-इंस्पेक्टर ओहदों के अफसर हैं जो माओवादी विरोधी कार्रवाइयों में कंपनियों, सेक्शनों और प्लाटूनों की अगुआई करते हैं. इन कमियों ने जंग के मैदान में अगुआई को पंगु कर दिया है.

24 अप्रैल के हमले के दौरान एक अकेला इंस्पेक्टर दो कंपनियों का प्रभारी था, जबकि सिफारिश के मुताबिक इतने बड़े बल की अगुआई के लिए कम से कम पांच अफसर होने चाहिए थे—एक डिप्टी कमांडेंट, दो इंस्पेक्टर और दो डिप्टी इंस्पेक्टर. सुकमा की मुठभेड़ ने आगे के खतरों के लिए बीज बो दिए हैं. महज एक घात में माओवादी 22 हथियार लेकर चलते बने. इनमें एके-47 और आइएनएसएएस राइफलें और 3,000 से ज्यादा गोलियां शामिल हैं—जो ऐसा ही एक और हमला करने के लिए काफी हैं.

50 साल पहले 25 मई, 1967 को पश्चिम बंगाल के एक उनींदे-से गांव नक्सलबाड़ी से शुरू हुआ हिंसक हथियारबंद किसान विद्रोह भूमि सुधारों के अभाव और शोषण की पीठ पर सवारी गांठकर बढ़ता चला गया. उस विद्रोह को पुलिस और भारतीय सेना ने अगस्त 1971 आते-आते हिंसा से कुचल दिया था.

देश के दो राज्यों में भड़के माओवादी आंदोलन के शोलों ने 2004 में आपस में मिलकर जंगल की आग सुलगा दी. आंध्र प्रदेश के पीपल्स वॉर ग्रुप (पीडब्ल्यूजी) और बिहार तथा झारखंड के माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसी) ने विलय करके कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओवादी) का गठन किया. इसने दक्षिण भारत से लेकर भारत-नेपाल सीमा तक लगातार फैली पट्टी में भीषण लड़ाई छेड़ दी. इसकी जद में नौ राज्य आ गए, जिनमें देश का 27 फीसदी इलाका आता है और 39 फीसदी आबादी रहती है.

माओवादियों के खिलाफ इस नई लड़ाई में सेना का इस्तेमाल केवल सहायक भूमिका के लिए किया जा रहा है—छत्तीसगढ़ और झारखंड में पड़ाव डाले वायु सेना के छह एमआई-17वी-5 हेलिकॉप्टरों का इस्तेमाल मृतकों को लाने और टुकडिय़ों तथा साजो-सामान को लाने-ले जाने के लिए किया जाता है. हेलिकॉप्टरों की कॉकपिट को बख्तरबंद इस्पात की चादरों से मजबूत बनाया गया है (जनवरी 2013 में नक्सलियों ने एक हेलिकॉप्टर को मार गिराया था).

बड़ा मोड़ 2010 के चिंतलनार हमले के बाद आया. उस वक्त के गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने राज्य पुलिस बलों को सुसज्जित और सशक्त बनाने की दो स्तरीय योजना शुरू की. वामपंथी उग्रवाद प्रभावित जिलों में ज्यादा अर्धसैनिक बल झोंको और दूरदराज के इलाकों में किलेबंद पुलिस थाने बनाओ. योजना का दूसरा चरण यह था कि जिला अफसरों को माओवादियों से आजाद किए गए इलाकों में स्कूल, सड़कों, शौचालयों और पीने के पानी की सुविधाओं का निर्माण करके ताकतवर बनाओ. छत्तीसगढ़, झारखंड और पश्चिम बंगाल में एक एकीकृत कमांड बनाई गई ताकि पुलिस, पारामिलिटरी और खुफिया इकाइयों की गतिविधियों के बीच नजदीकी तालमेल किया जा सके. 2000 के दशक की बेरुखी और लापरवाही को उलटने का श्रेय बड़ी हद तक इस रणनीति को दिया जा सकता है.

जहां सरकारें निठल्ली सोती रहीं, वहीं आंध्र प्रदेश के हिंसक उग्रवादियों के एक कट्टर धड़े ने, चश्माधारी और अबूझ 67 वर्षीय मुप्पल्ला लक्ष्मण राव उर्फ ÒÒगणपतिÓÓ की अगुआई में, मध्य भारत के इलाकों में अपना शिकंजा फैला लिया. ये इलाके औपनिवेशिक जमाने से ही पहुंच से इतने दूर थे कि इन्हें सर्वे किए बिना ही छोड़ दिया गया था. माओवादियों ने यहां तेजी से अपनी समानांतर सरकार स्थापित कर ली, स्कूल और अदालतें चलाने लगे, कर वसूलने लगे और फसलों के पैटर्न तय करने लगे.

यहां तक कि उन्होंने अपनी आदिवासी सेना पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी (पीएलजीए) का भी विस्तार कर लिया. छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके में इसके लड़ाकों की तादाद 2,000 तक मानी जाती थी.

हालांकि धीरे-धीरे ही सही, पर राजसत्ता अब फिर लड़ाई में लौट रही है. ‘सबसे ज्यादा ग्रस्त’ की श्रेणी में रखे गए 35 जिलों में केंद्र सरकार ने पिछले दो साल में 358 नई बैंक शाखाएं, 752 एटीएम और 1,789 डाकखाने खोले हैं.

जनवरी और दिसंबर, 2015 के दौरान पहले चरण में 932 मोबाइल फोन टावर लगाए गए हैं. वामपंथी उग्रवाद प्रभावित इलाकों में मोबाइल कनेक्टिविटी बढ़ाने के लिए अगले चरण में और 175 टॉवर लगाने की पेशकश की गई है.

सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय ने आठ राज्यों के वामपंथी उग्रवाद से सबसे ज्यादा प्रभावित 34 जिलों में 31 जनवरी, 2016 तक 3,904 किमी लंबी सड़कें बनाई हैं. अगले कुछ साल के दौरान कुल 5,422 किमी लंबी सड़कें बनाया जाना बाकी है. सरकार ने खासकर छत्तीसगढ़ के माओवादी इलाकों को अर्धसैनिक बलों से भर देने की रणनीति को बहुत तेज कर दिया है. केंद्रीय गृह मंत्रालय के एक बड़े अफसर कहते हैं, ‘‘2010 और 2014 के दौरान हमने पारामिलिटरी बटालियनों की तादाद 30 से बढ़कर 100 होते देखी है (हरेक बटालियन में 800 जवान हैं).’’ ‘‘हम धीरे-धीरे उनकी जड़ें काट रहे हैं.’’ यह कहना है छत्तीसगढ़ के कांकेर में काउंटर टेररिज्म ऐंड जंगल वारफेयर कॉलेज चला रहे ब्रिगेडियर बसंत कुमार पोनवार (सेवानिवृत्त) का. भविष्यवाणी-सी करते हुए वे कहते हैं, ‘‘ यह विशाल माओवादी पेड़ एक दिन मुरझा जाएगा और भरभराकर गिर पड़ेगा.’’

27 वर्षीय जीतूराम सावलम एक ऐसा शख्स है जो भारत में कहीं भी भीड़ में गुम हो सकता है. दुबली-पतली काया, ऊपरी होठों पर पतली सी मूंछ, गहरे धंसी हुई आंखें और बालों से ढंका हुआ माथा- वह पूरे बांह की शर्ट, पैंट और सैंडिल पहनता है और उसकी कलाई पर क्वार्ट्ज की प्लास्टिक वाली घड़ी होती है. इस आदमी का भी एक अतीत है. जब वह आज से ठीक सात साल पहले दक्षिणी छत्तीसगढ़ के चिंतलनार में एक भीषण गरमी वाले दिन की घटनाओं को बयान करता है तो उसकी देह कांपने लग जाती है.

इसी दिन माओवादियों ने सीआरपीएफ  के 75 जवानों और एक पुलिस कांस्टेबल को बस्तर के जंगलों में घेर कर मार दिया था. आजादी के बाद देश में सुरक्षाबलों पर हुआ यह सबसे संगीन हमला था. यह वह हमला था जिसमें जीतूराम ने पीएलजीए के पैदल आदिवासी सैनिक के रूप में हिस्सा लिया था.

सात साल बाद वह चिंतलनार से 400 किलोमीटर से ज्यादा दूर रायपुर शहर में बैठकर उस खूनी घटना को याद कर रहा है. वह काफी तेजी से एक मेज पर रणनीति को समझाता है—सुरक्षाबल एक कतार में चल रहे थे, 200 से ज्यादा माओवादी एल की आकृति में उन्हें घेर कर घात लगाए बैठे थे. सुरक्षाबलों के ऊपर मैदान में 3,000 से ज्यादा गोलियों की बौछार हुई. सीआरपीएफ  के केवल चार जवान बचे. इस हत्याकांड में अपनी भूमिका पर जीतूराम कुछ नहीं बताता लेकिन केवल इतना कहता हैः वे लोग एक-एक जवान को मार देना चाहते थे.

और फिर पिछले साल मार्च में एक दिन जीतूराम और उनकी पत्नी पैदल सैनिक पोज्जे ने इंकलाब को अपनी पीठ दिखा दी. दंतेवाड़ा में वे अपने शिविर से भाग निकले, सादे कपड़ों में बिना राइफल के जंगलों को पार कर गए और आत्मसमर्पण कर दिया. वे कहते हैं, ‘‘ मुझे वादे के हिसाब से क्रांति आती हुई नहीं दिखती.’’ अब उन्हें छत्तीसगढ़ पुलिस में दाखिल कर लिया गया है तो वे अपने पूर्व कामरेडों के खिलाफ  पुलिस के लिए एक बहुमूल्य सूत्र की भूमिका निभा सकते हैं. उनकी कहानी दरअसल माओवादियों की खस्ताहाली का उदाहरण है जो अपने वजूद की निर्णायक जंग लड़ रहे हैं.

छत्तीसगढ़ के सबसे मजबूत किले में माओवादियों ने पिछले साल सुरक्षाबलों के साथ मुठभेड़ में अपने 134 काडर गंवा दिए और उनसे 250 हथियार जब्त किए गए. छत्तीसगढ़ के विशेष डीजी (नक्सल अभियान और विशेष गुप्तचर ब्यूरो) दुर्गेश माधव अवस्थी कहते हैं, ‘‘ हम लोग उन पर जबरदस्त दबाव डाल रहे हैं.’’ हमें गुप्त सूचना के आधार पर ऑपरेशन चलाए हैं. बीते 18 महीनों में हमने हर सप्ताह माओवादियों के दो या तीन कैंपों पर हमले किए हैं. वे हमारे एक भी कैंप पर हमला नहीं कर सके हैं.’’

पिछले सात साल में भाकपा (माओवादी) के 848 सदस्य मारे गए, पकड़े गए या सरेंडर कर चुके हैं. पकड़े जाने वालों में पार्टी की केंद्रीय कमेटी के दो सदस्य हैं—2015 में पुणे से के. मुरलीधरन और 2013 में असम के कछार से अनुकूल चंद्र नस्कर.

गृह मंत्रालय के आंकड़े दिखाते हैं कि पिछले साल 1442 माओवादियों ने आत्मसमर्पण किया जो 2015 की संख्या का तीन गुना है; 2017 के पहले तीन महीनों में 397 माओवादी सरेंडर कर चुके हैं. माना जा रहा है कि भाकपा (माओवादी) की केंद्रीय कमेटी और पोलित ब्यूरो के अधिकतर सदस्य छत्तीसगढ़ की सीमा से लगे बड़े शहरी केंद्रों और कस्बों में छुपे बैठे हैं. तेलंगाना और आंध्र में इनकी हिंसक गतिविधियों में काफी गिरावट आई है जहां वामपंथी अतिवाद का लंबा इतिहास रहा है. तेलंगाना में एक चिंताजनक बात यह है कि वहां माओवादियों की मौजूदगी को दबाया जाता है क्योंकि उनके तमाम शुभचिंतक खुद अलग राज्य के गठन से जुड़े आंदोलन का हिस्सा रहे.

हालिया वर्षों में माओवादियों को जबरदस्त नुक्सान हुआ है. इंस्टीट्यूट ऑफ कनफ्लिक्ट मैनेजमेंट के कार्यकारी निदेशक अजय साहनी कहते हैं, ‘‘अभी हालांकि अपनी जीत की घोषणा करना और अपना सुरक्षा कवच हटा लेना जल्दबाजी होगी. अगर हालिया घटना को दीए के बुझने से पहले भड़की हुई लौ की तरह माना जाए, तो हमें इसके कई बार और भड़कने की तैयारी करनी चाहिए.’’ सुकमा की घटना इसका ताजा उदाहरण है.

(—साथ में अमरनाथ के. मेनन)
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