चिली: आर्थिक उदारीकरण अपनाने वाले देशों के लिए सबक
- मानसी दाश
- बीबीसी संवाददाता
चिली में लगभग दो सप्ताह से लगातार विरोध प्रदर्शन जारी हैं. 18 अक्तूबर को मेट्रो के किराए में बढ़ोतरी का कुछ हज़ार छात्रों ने विरोध शुरू किया, जिसमें बाद लाखों की संख्या में लोग सड़कों पर उतरने लगे.
मामला बढ़ा, राष्ट्रपति सेबेस्टिन पिन्येरा ने प्रदर्शनकारियों से माफ़ी मांगी और इमरजेंसी लगाने के अपने फ़ैसले को वापस लिया. उन्होंने कैबिनेट में बदलाव किए और आर्थिक सुधार करने का भी ऐलान किया.
लेकिन प्रदर्शनकारी पीछे हटने का नाम नहीं ले रहे हैं. वो राष्ट्रपति के इस्तीफ़े की मांग पर अड़े हुए हैं.
1990 में ऑगस्टो पिनोचे की सरकार के गिरने के बाद पहली बार यहां इतने बड़े पैमाने पर प्रदर्शन हुए हैं.
क्या किराया बढ़ोतरी इतना बड़ा कारण था कि राष्ट्रपति के इस्तीफ़े के साथ साथ संविधान को बदलने तक की मांग होने लगी.
चिली: आर्थिक उदारीकरण का उदाहरण
दक्षिण अमरीका के दक्षिण-पश्चिम हिस्से में विशाल समुद्रतट से सटा चिली की गिनती लैटिन अमरीका के सबसे अमीर देशों में की जाती है. इसे आर्थिक उदारीकरण के उदाहरण के तौर पर देखा जाता है.
करीब 1.80 करोड़ की आबादी वाला ये देश बीते दो हफ़्ते से सरकार विरोधी प्रदर्शनों के कारण ख़बरों में है.
6 अक्तूबर को जब चिली सरकार ने राजधानी सेन्टियागो में मेट्रो के किराए में 4 फ़ीसदी बढ़ोतरी का ऐलान किया तो किसी को अंदाज़ा नहीं था कि इसके विरोध की आवाज़ें दुनिया भर में गूंजेंगी.
सरकार की दलील थी कि अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में देश की मुद्रा लुढ़क रही है और बिजली की कीमतें बढ़ रही हैं लेकिन ये सुनने को वे तैयार नहीं थे.
स्कूल और यूनिवर्सिटी छात्रों ने मेट्रो किराए के बढ़े हुए पैसे नहीं देने का फ़ैसला किया और वो मेट्रो स्टेशनों पर लगे बैरीकेड लांघने लगे. पुलिस के साथ उनकी छोटी-छोटी कई झड़पें भी हुईं.
18 अक्तूबर को मामला तब गंभीर हो गया जब हज़ारों छात्र सड़कों पर उतर आए. प्रदर्शनकारियों ने बिजली कंपनी की इमारत को आग के हवाले किया और बसों को जला दिया. बढ़ते विरोध को देखते हुए राष्ट्रपति सेबेस्टिन पिन्येरा ने इमरजेंसी लगा दी.
विरोध बढ़ा, लाखों लोग सड़कों पर उतरे
राष्ट्रपति सेबेस्टिन पिन्येरा ने कहा, "हम इमरजेंसी लगा रहे हैं और इसका उद्देश्य है - क़ानून व्यवस्था लागू करना, सेन्टियागो शहर के लोगों के लिए शांति बनाए रखना और सार्वजनिक और निजी संपत्ति को बचाना और सभी को हकों की रक्षा करना."
सड़कों पर हथियारबंद सैनिक और बख्तरबंद गाड़ियां दिखने लगीं.
लेकिन न केवल विरोध प्रदर्शनों में हिस्सा लेने वालों की संख्या बढ़ती रही बल्कि ये विरोध अन्य शहरों में भी फ़ैलने लगा.
वाल्दिविया शहर के एक प्रदर्शनकारी फेबियन गोन्ज़ालेज़ कहते हैं, "हम विरोध जारी रखेंगे क्योंकि अब सरकार लोगों को बेवकूफ नहीं बना सकती. लोग अब इसके लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने लगे हैं. सरकार विरोध करने वाले लोगों के ख़िलाफ़ कदम उठाने वाली है."
चिली में मामला केवल मेट्रो किराए में बढ़ोतरी का नहीं था. असल में सरकार के इस फ़ैसले ने देश में गैर-बराबरी और बढ़ती महंगाई पर चर्चा छेड़ दी थी.
दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में स्कूल ऑफ़ फॉरेन स्टडीज़ के प्रोफ़ेसर अब्दुल नाफे बताते हैं यहां आर्थिक असमानता अधिक है जो लोगों के रोष का बड़ा कारण है.
वे कहते हैं, "चिली को पूरी दुनिया में आर्थिक उदारीकरण का उदाहरण माना जाता है. उसके कारण यहां आर्थिक असमानताएं काफी बढ़ गई हैं. हालत यहां तक बिगड़ गई हैं कि वहां का मध्यम वर्ग अपनी आय का एक बड़ा हिस्सा टैक्स के रूप में देता है. हम कहते हैं कि वहां सड़कें बेहतर हैं लेकिन टोल टैक्स इतना अधिक है कि जनता उन सड़कों पर निकल नहीं सकती."
"अस्पताल, स्कूल, कॉलेज सभी निजी हाथों में हैं. अगर आपके पास पैसे हैं तो ठीक, नहीं तो आपको सरकारी स्कूलों में जाना होगा जो कुछ ही हैं और इनमें कुछ जान बची नहीं है."
सरकारी नीतियों पर उठे सवाल
ब्राज़ील में मौजूद वरिष्ठ पत्रकार शोभन सक्सेना कहते हैं कि चिली की स्थिति ब्राज़ील, अर्जेन्टीना, इक्वाडोर और अन्य लैटिन अमरीकी देशों की स्थिति से बहुत अलग नहीं है.
वो कहते हैं, "इन देशों में आर्थिक असमानता की समस्या अधिक है. जो अमीर हैं काफी अधिक अमीर हैं और जो ग़रीब हैं वो काफी ग़रीब हैं. पिछले दो सालों से चिली में राष्ट्रपति सेबेस्टिन पिन्येरा की सरकार है. इन्होंने ऐसी नीतियां लागू की हैं जिससे असमानता बढ़ी है."
"लोगों पर आर्थिक बोझ अधिक हुआ है. लोगों के बिजली के बिल और पानी के बिल बहुत ज़्यादा हो गए हैं. एक तरफ तो लोगों में ग़रीबी बढ़ रही है और दूसरी तरफ लोगों को मजबूर किया जा रहा है कि वो सरकरी सेवाओं के लिए अधिक पैसा दें."
चिली में 1970 से 1973 के बीच कम्युनिस्ट के झुकाव वाली साल्वोडोर आयेन्दे की सरकार थी. ऑगस्टो पिनोचे के नेतृत्व में हुए सैन्य विद्रोह के बाद इस सरकार का तख्तापलट हुआ.
जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में स्कूल ऑफ़ इंटरनेशनल स्टडीज़ में एसोसिएट प्रोफ़ेसर डॉ प्रीति सिंह कहती हैं, "आयन्दे लोकलुभावन योजनाएं निकाल रहे थे. लेकिन उनका भी अर्थव्यवस्था पर अधिक असर नहीं हो पाया. उन्हें सत्ता से हटा दिया गया था. पिनोचे के दौरान दौरान आर्थिक लिबरलाइज़ेशन की नीति अपनाई गई. उन्होंने ट्रेड यूनियन को बैन किया था, स्थानीय व्यवसायों को टैक्स से मिलने वाली छूट को हटा दिया था और निजीकरण को बढ़ाया था. देश के सभी सरकारी इकाइयों का निजीकरण कर दिया गया था."
1990 में पिनोचे की सत्ता ख़त्म हुई. इसके बाद कभी लोकतांत्रिक पार्टी सत्ता में रही तो कभी सोशलिस्ट पार्टी.
दिलचस्प बात ये है कि देश में अब भी 1990 का वही संविधान लागू है जो पिनोचे के कार्यकाल में बनाया गया था.
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प्रोफ़ेसर अब्दुल नाफे बताते हैं, "संविधान की कुछ मूल धाराएं ऐसी हैं कि उदारवादी अर्थव्यव्स्था में बदलाव नहीं ला सकते बल्कि उसे बढ़ावा देने की बात है. हर चीज़ का निजीकरण इस कदर हो गया है कि वहां का मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग उसका लाभ लेने में सक्षम नहीं है."
वो बताते हैं, "ये संविधान सेना ने बनाया था और सेना अपने अधिकार और काम की चीज़ें उसके अंदर रख कर चली गई. बड़े बड़े पूंजीवादी थे उनका पक्ष रख कर चले गए. इसमें आम नागरिकों वाली कोई बात नहीं है."
प्रदर्शनकारी देश के संविधान ख़त्म करने और सामाजिक-आर्थिक सुधार लागू करने की मांग कर रहे हैं. वो राष्ट्रपति सेबेस्टिन पिन्येरा के इस्तीफे की मांग पर अड़े हैं.
शोभन सक्सेना कहते हैं, "संविधान के ढांचे में तो परिवर्तन नहीं हो सकता लेकिन लोग मांग कर रहे हैं कि सरकार लोगों पर अधिक ध्यान दे. मौजूदा सरकार ने सार्वजनिक सेवाओं में बड़ी कटौतियां की हैं इस कारण लोगों में रोष है. वो चाहते हैं कि संविधान में ऐसे परिवर्तन हो जिसके अनुसार सरकार शिक्षा, स्वास्थ्य और सार्वजनिक यातायात पर सरकार अधिक पैसा खर्च करे."
लोगों को नए संविधान की आस
22 अक्तूबर को राष्ट्रपति सेबेस्टिन पिन्येरा ने प्रदर्शनकारियों से माफ़ी मांगी और सामाजिक और आर्थिक बदलाव करने का ऐलान भी किया.
उन्होंने कहा, "हम पेन्शन बढ़ाने, दवाओं की कीमतें कम करने, स्वास्थ्य सेवाएं बेहतर और सस्ती करने के लिए के लिए नए कदम उठा रहे हैं. और भी कई क्षेत्रों में हम काम कर रहे हैं जैसे कि बेहतर नौकरियां, अच्छी तनख्वाह, कम कीमत पर बिजली और मूलभूत सुविधाएं."
लेकिन राष्ट्रपति के वादों के बावजूद विरोध प्रदर्शन रुकने का नाम ही नहीं ले रहे हैं.
प्रोफ़ेसर अब्दुल नाफे इसका कारण बताते हैं, "ये काफी गैर-स्वतंत्र गणतंत्र है और उन्होंने खुद ही इसकी मिसाल दे दी है. लोगों को लगता है कि गणतंत्र आएगा, नया संविधान आएगा तो शायद उसमें हमें कुछ राहत मिले. यही कारण है कि वो नए संविधान की बात कर रहे हैं. यही कारण है कि वो कहते हैं कि राष्ट्रपति इस्तीफ़ा दें."
शोभन सक्सेना कहते हैं सरकार पर लोगों का भरोसा नहीं है क्योकि जहां एक तरफ सरकार ने सुधारों की बात की हैं वहीं दूसरी तरफ सड़कों पर अब भी फौज तैनात हैं और प्रदर्शनकारियों का दमन भी जारी है.
वो कहते हैं, "लोगों में इतना गुस्सा है इतना रोष है कि लोगों के जीवन में इतनी समस्याएं हैं जिस कारण लोग सरकार के छोटे-छोटे वादों पर यकीन करने को तैयार नहीं है. वो एक मूलभूत परिवर्तन चाहते हैं. मैं कहूंगा कि अभी चिली में एक तरह की क्रांति हो रही है वहां की सरकार के ख़िलाफ़, आर्थिक असमानता और सामाजिक ढांचे के विरोध में."
जानकार मानते हैं कि चिली की सड़कों पर हो रहे परिवर्तन की गहरी छाप अन्य देशों पर भी पड़ेगी.
वो मानते हैं कि उदारीकरण की नीति अपनाने वाले देशों के लिए चिली एक उदाहरण है जिससे समय रहते बहुत कुछ सीखा जाना चाहिए.
डॉ प्रीति सिंह के शब्दों में, "भारत को इससे कुछ सीखना चाहिए, ये ध्यान में रखते हुए कि जिस तेज़ी हमारा आर्थिक विकास हो रहा है, वो किस तरह से सभी वर्गों में बांटा जाए."
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