छत्तीसगढ़ में माओवादी हिंसा की वारदातें बढ़ीं पर मौत के आंकड़े घटे

  • आलोक प्रकाश पुतुल
  • रायपुर से बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए
डीआरजी

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इमेज कैप्शन, डीआरजी के जवान

छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में माओवादियों के हमले में मारे गए डिस्ट्रिक्ट रिज़र्व गार्ड यानी डीआरजी के 10 जवानों और एक ड्राइवर के शव को गुरुवार को उनके गांवों के लिए रवाना कर दिया गया.

मारे जाने वाले सभी लोग माओवाद प्रभावित दंतेवाड़ा, बीजापुर और सुकमा ज़िले के थे.

पिछले कुछ सालों में सुरक्षाबल और पुलिस में बस्तर के स्थानीय जवानों की भर्ती ने माओवादियों के लिए बड़ी चुनौती खड़ी की है.

माओवादियों से होने वाली लड़ाई में इलाक़े की भौगोलिक परिस्थिति से लेकर बोली-भाषा के जानकार इन स्थानीय युवाओं को, सबसे आगे रखा जाता है.

माओवादियों के ख़िलाफ़ चलाए जाने वाले अभियानों में दूसरे सशस्त्र बलों के अलावा डीआरजी के जवानों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है.

छत्तीसगढ़ में 2005 में माओवादियों के ख़िलाफ़ महेंद्र कर्मा के नेतृत्व में 'सलवा जुडूम' अभियान शुरू हुआ तो आदिवासियों के 644 गांव पूरी तरह खाली हो गए.

इन गांवों से भागने वाले कुछ लोगों ने सरकारी कैंपों में शरण ली तो कुछ अगल-अलग राज्यों में रहने के लिए मज़बूर हुए.

बस्तर फाइटर्स के नाम से स्थानीय युवाओं की भर्ती.

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इमेज कैप्शन, बस्तर फाइटर्स के नाम से स्थानीय युवाओं की भर्ती.

क्या है डीआरजी?

2011 में सशस्त्र नागरिकों के इस अभियान 'सलवा जुडूम' पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगाई और नागरिकों को इस तरह राज्य सरकार द्वारा हथियार थमा दिए जाने पर कड़ी आपत्ति की.

उसके बाद इस अभियान में शामिल किए गए अधिकांश स्पेशल पुलिस ऑफिसर यानी एसपीओ को सहायक आरक्षक और आरक्षक के तौर पर डिस्ट्रक्ट रिज़र्व गार्ड यानी डीआरजी में भर्ती कर लिया गया.

डिस्ट्रिक्ट रिज़र्व गार्ड में स्थानीय जवानों के अलावा एसपीओ के शामिल होने से उसकी ताक़त और बढ़ गई. इसके अलावा समय-समय पर आत्मसमर्पण करने वाले माओवादियों को भी डीआरजी में भर्ती किया जाता रहा है.

धमाके में गाड़ी के परखच्चे उड़ गए

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इमेज कैप्शन, धमाके में गाड़ी के परखच्चे उड़ गए.

डीआरजी में शामिल जवानों को सीआरपीएफ ने विशेष रुप से माओवादियों से लड़ने के लिए प्रशिक्षित करने का काम किया है.

डीआरजी के ऐसे ही एक जवान ने बीबीसी से कहा, "हमने इतने साल घने जंगल में गुजारे हैं कि एक गंध, एक ध्वनि, एक आहट से हमें अनुमान हो जाता है कि अगले पल क्या होने वाला है या क्या होने की आशंका है."

"हम में से कोई न कोई जवान ऐसा है, जो आसपास के गांवों के सैकड़ों लोगों और उनके रिश्तेदारों को पहचानता है. सुरक्षाबलों की दूसरी टुकड़ियों को सबसे बड़ी मुश्किल माओवादियों की पहचान में होती है, जो हमारे लिए बहुत आसान है."

ज़ाहिर है, माओवादियों के दांव-पेंच और उनके काम करने के तरीक़े को पूरी तरह से जानने-समझने वाले पूर्व माओवादियों के डीआरजी में शामिल होने से सुरक्षाबलों की ताक़त और बढ़ी है.

लेकिन कई बार छोटी-सी गलती जवानों पर भारी पड़ जाती है.

बुधवार को हुए धमाके के बाद बना गढ्ढा

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इमेज कैप्शन, बुधवार को हुए धमाके के बाद बना गढ्ढा.

गृह मंत्री अमित शाह का दावा

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छत्तीसगढ़ में माओवादी मार्च से जून के बीच टेक्टिकल काउंटर अफेंसिव कैंपेन यानी टीसीओसी चलाते हैं. गर्मी के मौसम में दूर तक देख पाना सरल होता है और बरसात व ठंड के मौसम की तुलना में आना-जाना भी सरल हो जाता है.

यही कारण है कि पिछले दस सालों में माओवादियों के अधिकांश बड़े हमले इसी मौसम में हुए हैं.

बुधवार को माओवादी ऑपरेशन से लौटते हुए निजी वाहन में सवार होना डीआरजी जवानों पर भारी पड़ गया.

बस्तर में लंबे समय तक काम कर चुके पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, "डीआरजी बस्तर में माओवादियों के ख़िलाफ़ चलाए जाने वाले अभियान की आंख, नाक और कान तो हैं ही, इनकी उपस्थिति से भी माओवादी घबराते हैं. डीआरजी की मज़बूती के कारण ही बस्तर में माओवादियों को अधिकांश अवसर पर मात खानी पड़ती है. यही डीआरजी के जवान माओवादियों की कब्र की अंतिम कील साबित होंगे."

पुलिस के इस अधिकारी ने दावा किया कि जिस तरीक़े से माओवादियों के ख़िलाफ़ छत्तीसगढ़ सरकार काम कर रही है, अगले दो-तीन सालों में बस्तर से माओवादियों का नामोनिशान ख़त्म हो जाएगा. हालांकि यह दावा नया नहीं है.

महीने भर पहले ही अपने दो दिनों की बस्तर यात्रा पर पहुंचे केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने भी कहा कि माओवादियों के ख़िलाफ़ चल रही लड़ाई अपने अंतिम चरण में है. पिछले कुछ वर्षों के मुकाबले नक्सली घटनाओं में भी काफी कमी आई है.

मुख्यमंत्री भूपेश बघेल

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बघेल के शासन में माओवादियों के क्षेत्र में 75 कैंप बने

दंतेवाड़ा में मारे गए जवानों के श्रद्धांजलि देने दंतेवाड़ा पहुंचे मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने कहा कि हमारे जवानों ने लड़ते हुए अपने प्राणों की आहुति दी है. ये शहादत बेकार नहीं जाएगी. बल्कि ये लड़ाई और तेज़ी से लड़ी जाएगी.

नक्सलियों के कमज़ोर पड़ने का दावा करते हुए मुख्यमंत्री ने कहा, "पहले कैंपों पर हमला होता था और जवान अपनी सुरक्षा करते थे. आज नीति में परिवर्तन हुआ है. अब हमारे जवान सर्च करके, उनके साथ मुठभेड़ करके लड़ाई लड़ते हैं और नक्सलियों को भी अपनी जान गंवानी पड़ती है. हमारे जवान कैंपों में अपनी जान नहीं दे रहे हैं. बल्कि लड़ते हुए शहादत हो रही है."

भूपेश बघेल ने दावा किया कि उनके कार्यकाल में चार सालों में माओवादियों के प्रभाव क्षेत्र में 75 कैंप स्थापित किए गए हैं. अब माओवादियों के छुपने की जगह नहीं रही. छत्तीसगढ़ में माओवादी लगातार पीछे हटते जा रहे हैं.

माओवादी हिंसा

पिछले केंद्रीय गृह मंत्रालय के पांच सालों के आंकड़े देखें तो पता चलता है कि छत्तीसगढ़ में 2019 में 263 माओवाद से जुड़ी हिंसा की घटनाओं में 77 लोग मारे गये, वहीं अगले साल यानी 2020 में माओवादी हिंसा की घटनाओं की संख्या बढ़ कर 315 पहुंच गई और मारे गए लोगों का आंकड़ा भी बढ़ कर 111 हो गया.

अगले साल घटनाओं की संख्या 255 रह गई लेकिन मारे जाने वाले लोगों का आंकड़ा 101 रहा.

2022 के आंकड़े बताते हैं कि छत्तीसगढ़ में पिछले साल की तुलना में माओवादी हिंसा की घटनाओं में और बढ़ोतरी हुई और राज्य में इस दौरान माओवादी हिंसा की 305 घटनाएं दर्ज की गईं. हालांकि इस दौरान मृतकों की संख्या केवल 61 रही.

पिछले कुछ सालों से माओवाद प्रभावित ज़िलों की संख्या में भी कोई कमी नहीं आई है. राज्य के 14 ज़िले, अभी भी माओवाद प्रभावित हैं.

हालांकि इस दौरान माओवाद से प्रभावित सुरक्षा संबंधित व्यय योजना के अंतर्गत राज्यों को मिलने वाली रक़म बढ़ती चली गई.

अगर छत्तीसगढ़ की बात करें तो केंद्र सरकार ने इस मद में 2018-19 में केवल 54.53 करोड़ रुपये की मदद दी थी तो 2021-22 में यह आंकड़ा 136.82 करोड़ जा पहुंचा.

इसी तरह केंद्र से मिलने वाली विशेष केंद्रीय मदद के तहत 2017-18 में केवल 40 करोड़ की मदद छत्तीसगढ़ को मिली लेकिन अगले साल यानी 2018-19 में 266.67 करोड़ रुपये, 2019-20 में 266.64 रुपये, 2020-21 में 114 करोड़ रुपये और 2021-22 में 140 करोड़ रुपये छत्तीसगढ़ को दिए गए.

आरके विज

माओवादियों का दायरा कितना सिमटा?

हालांकि छत्तीसगढ़ के विशेष पुलिस महानिदेशक रह चुके आरके विज केवल आंकड़ों के भरोसे माओवादियों के मज़बूत या कमज़ोर होने के आंकलन को सही नहीं मानते.

बरसों माओवाद ऑपरेशन की कमान संभालने वाले आरके विज का मानना है कि किसी ऑपरेशन में सफलता या विफलता 'अवसर' से जुड़ा मुद्दा है.

विज कहते हैं, "सुरक्षा बल कितने मज़बूत हुए हैं, माओवादियों का दायरा कितना कम हुआ है, माओवादी दलों में नई भर्तियों का क्या हाल है, विकास के काम किस हद तक बढ़े हैं, ऐसे कई पैरामीटर पर जब हम आंकलन करेंगे तो ही किसी निष्कर्ष पर पहुंच पाना संभव होगा. आंकड़े आपको कहीं नहीं पहुंचाते."

दूसरी ओर छत्तीसगढ़ में बरसों तक काम कर चुके एक सेवानिवृत्त शीर्ष पुलिस अधिकारी ने बीबीसी से कहा कि माओवादियों के ख़िलाफ़ पिछले कुछ सालों से ज़्यादा ऑपरेशन नहीं हो रहे हैं.

जब ऑपरेशन ही नहीं करेंगे तो मौत के आंकड़े कम ही होंगे लेकिन माओवादियों की दूसरी हिंसा की घटनाएं तो जारी रहेंगी.

ऑपरेशन कम होने का एक नुक़सान और होता है कि आप ग़लतियां ज़्यादा करते हैं और उसके कारण नुकसान उठाना पड़ता है. सरकार को इसके लिए एक सुस्पष्ट नीति बनानी चाहिए.

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