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क्या राज्य सरकारें अपने स्तर पर करा सकती हैं जातिगत जनगणना?

देश में जाति आधारित जनगणना की मांग तेज होती जा रही है. बीजेपी छोड़कर बाकी तमाम राजनीतिक दल जातिगत जनगणना को देश हित में बता रहे हैं. केंद्र की मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर कर जातिगत जनगणना कराने से साफ मना कर दिया है, जिसके बाद केंद्र सरकार के खिलाफ विपक्षी दलों ने मोर्चा खोल रखा है.

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जातिगत जनगणना की मांग तेज
जातिगत जनगणना की मांग तेज
स्टोरी हाइलाइट्स
  • मोदी सरकार जातिगत जनगणना पर राजी नहीं
  • राज्य सरकार क्या अपने स्तर पर कराएंगी जनगणना

देश में जाति आधारित जनगणना की मांग तेज होती जा रही है. बीजेपी छोड़कर बाकी तमाम राजनीतिक दल जातिगत जनगणना को देश हित में बता रहे हैं. केंद्र की मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर कर जातिगत जनगणना कराने से साफ मना कर दिया है, जिसके बाद केंद्र सरकार के खिलाफ विपक्षी दलों ने मोर्चा खोल रखा है.

नीतीश कुमार के बाद सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने ऐलान किया है कि सत्ता में आएंगे तो राज्य स्तर पर जातिगत जनगणना कराने का काम करेंगे. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या राज्य सरकारें अपने स्तर पर जनगणना करा सकती हैं? 

अखिलेश का जातिगत जनगणना कराने का वादा

अखिलेश यादव ने बुधवार को कहा कि दलित, वंचित, शोषित और पिछड़े वर्ग के हितों की रक्षा के लिए जातिगत जनगणना कराना काफी जरूरी है. केंद्र सरकार ने जातिगत जनगणना कराने से मना कर दिया है, क्योंकि पिछड़े लोग ज्यादा हैं और जनगणना के बाद जो आंकड़े जारी होंगे उससे वह जाग जाएंगे, जो बीजेपी नहीं चाहती. उन्होंने कहा कि अगर उत्तर प्रदेश में सपा सरकार बनेगी तो राज्य स्तर पर जातिगत जनगणना की जाएगी. 

वहीं, केंद्र सरकार के द्वारा जातिगत जनगणना कराने से इनकार करने के बाद बिहार के राजनीतिक दलों ने आक्रामक रुख अपना लिया है. नीतीश कुमार ने केंद्र सरकार से जातिगत जनगणना कराने को लेकर दोबारा से विचार करने की मांग उठाई है. उन्होंने कहा है कि जाति आधारित जनगणना कराया जाना देश हित में है और बिहार के 13 राजनीतिक दलों के नेता पूरी तरह से सहमत हैं. साथ ही नीतीश ने बिहार में अपने स्तर पर जातीय जनगणना कराने की दिशा में आगे बढ़ने के भी संकेत दिए हैं. उन्होंने कहा कि इस मुद्दे पर लोगों और सभी पार्टियों के साथ बातचीत कर कदम उठाएंगे. 

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बीजेपी का जातिगत जनगणना से इनकार

बीजेपी नेता सुशील कुमार मोदी ने कहा है कि तकनीकी और व्यावहारिक तौर पर केंद्र सरकार के लिए जातीय जनगणना कराना संभव नहीं है, क्योंकि 1931 की जातीय जनगणना में 4147 जातियां पाई गई थीं. केंद्र व राज्यों के पिछड़े वर्गों की सूची मिला कर मात्र 5629 जातियां हैं. 2011 में कराई गई सामाजिक-आर्थिक गणना में एक बारगी जातियों की संख्या बढ़ कर 46 लाख के करीब हो गई है. ऐसे में जातियों का शुद्ध आंकड़ा प्राप्त करना संभव नहीं हो पाया. हालांकि, उन्होंने कहा कि केंद्र ने अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी है राज्य चाहे तो अपने स्तर पर जातिगत जनगणना करा सकते हैं. 

केंद्र सरकार जातिगत जनगणना कराने की मांग को अस्वीकार करने के बाद आरजेडी नेता तेजस्वी यादव ने बिहार सरकार से कर्नाटक मॉडल की तर्ज पर अपने खर्चे पर राज्य में जातिगत जनगणना कराने की मांग की है. सुशील मोदी भी यही बात कह रहे हैं. अब यूपी में अखिलेश यादव भी सत्ता में आने पर राज्य स्तर पर जातिगत जनगणना कराने का वादा किया है. 

राज्य के आंकड़ों की क्या वैधता होगी

जेएनयू में राजनीतिक अध्ययन केंद्र के एसोसिएट प्रोफेसर हरीश वानखेड़े का कहना है कि देश में ओबीसी आरक्षण के लिए कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है, इसलिए जाति जनगणना होनी ही चाहिए. जनगणना कराने की जिम्मेदारी राज्य की नहीं बल्कि केंद्र सरकार की होती है, लेकिन मोदी सरकार अपने वैचारिक कारणों के चलते राजी नहीं है. ऐसे में राज्य सरकारें अपने स्तर पर अपने राज्यों में जातिगत जनगणना तो करा सकती हैं, लेकिन उसकी कोई वैधता नहीं होगी. इसके अलावा दूसरी दिक्कत यह है कि राज्य सरकार की जातिगत जनगणना रिपोर्ट को केंद्र सरकार स्वीकार नहीं करेगा. 

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वह कहते हैं कि ऐसे में राज्य सरकारें अपने स्तर पर राज्य में भले ही जातिगत जनगणना करा लें, लेकिन उसकी मान्यता नहीं होगी. हां यह बात जरूर है कि राज्य सरकारें जाति आधार पर जनगणना कराकर देश के सामने अपने प्रदेश का एक जातीय आंकड़ा सामने रख सकती हैं, जिसके जरिए एक बहस खड़ी कर सकती हैं. इससे ज्यादा उस रिपोर्ट की कोई अहमियत नहीं होगी, क्योंकि न तो राज्य अपने स्तर से ओबीसी के आरक्षण का दायरा बढ़ा सकते हैं और न ही उसे लागू कर सकते हैं.  

जनगणना का कर्नाटक मॉडल क्या है

बता दें कि कर्नाटक की राजनीति में सबसे प्रभावशाली जातियां वोक्कालिगा और लिंगायत हैं. ये दोनों ही जातियां आर्थिक या सामाजिक रूप से पिछड़ी नहीं हैं बल्कि दबंग और वर्चस्व वाली जातियां हैं. इनके वर्चस्व को तोड़ने की नीयत से कांग्रेस की सिद्धारमैया सरकार ने 2015 में सामाजिक व शैक्षणिक सर्वेक्षण कराया था, जिसे सियासी गलियारे में जाति-जनगणना का नाम दिया गया था. 

यह सामाजिक-आर्थिक और शिक्षा सर्वेक्षण कर्नाटक सरकार ने अपने स्तर पर करवाया था और इसके लिए 162 करोड़ रुपए खर्च किए थे. कर्नाटक सरकार ने जातिगत जनगणना जरूर कराई थी, लेकिन लिंगायत व वोक्कालिगा समुदायों की नाराजगी से बचने के लिए इस सर्वेक्षण की रिपोर्ट को अब तक सार्वजनिक नहीं किया गया है. हालांकि, राज्य का ओबीसी समाज लगातार दबाव बना रहा है कि इस रिपोर्ट को सार्वजनिक किया जाए. 

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1931 के बाद देश में नहीं जातीय जनगणना

देश में जाति आधारित जनगणना की मांग काफी पहले से हो रही है. आजादी से पहले साल 1931 में जातिगत जनगणना हुई थी, जिसके बाद से दोबारा नहीं हुई है. साल 1941 में जनगणना के समय जाति आधारित डेटा जुटाया जरूर गया था, लेकिन प्रकाशित नहीं किया गया. साल 1951 से 2011 तक की जनगणना में हर बार अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का डेटा दिया गया, लेकिन ओबीसी और दूसरी जातियों का नहीं.

साल 1990 में केंद्र की तत्कालीन विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार ने दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग, जिसे आमतौर पर मंडल आयोग के रूप में जाना जाता है, की एक सिफारिश को लागू किया था, जिसकी वजह से ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण का लाभ मिल रहा है. इस फैसले ने भारत, खासकर उत्तर भारत की राजनीति को बदल कर रख दिया. 

मंडल कमीशन के आंकड़ों के आधार पर कहा जाता है कि भारत में ओबीसी आबादी 52 प्रतिशत है. ऐसे में ओबीसी नेता जातिगत जनगणना की मांग करते रहे हैं, जिसके चलते साल 2011 में सोशियो इकोनॉमिक कास्ट सेंसस सर्वे आधारित डेटा जुटाया था. चार हजार करोड़ से ज़्यादा रुपए खर्च किए गए थे, लेकिन इसे प्रकाशित नहीं किया गया है. वहीं, इस साल होने वाली जनगणना में जातियों की गिनती कराने की मांग उठ रही है, लेकिन केंद्र सरकार राजी नहीं है. ऐसे में देखना है कि क्या राज्य इस दिशा में अपने स्तर पर कदम बढ़ाएंगे. 

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