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क्यों उठ रही है जातीय जनगणना की मांग, क्या हो सकते हैं इसके फायदे और नुकसान

जातिगत जनगणना के जो समर्थन में हैं, वो कहते हैं कि इससे नीतियां बनाने में मदद मिलेगी. वहीं, जो इसके विरोध में कहने वालों का तर्क है कि ये समाज को बांटने वाला कदम है. जातिगत जनगणना की मांग क्यों हो रही है? इसका सियासी गणित क्या है? अगर हुई तो क्या असर हो सकता है? जातिगत जनगणना का इतिहास क्या है? जानते हैं.

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विपक्षी पार्टियां जातिगत जनगणना की मांग पर अड़ गईं हैं. (फोटो-आजतक)
विपक्षी पार्टियां जातिगत जनगणना की मांग पर अड़ गईं हैं. (फोटो-आजतक)

जातिगत जनगणना की मांग में अब मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस भी कूद गया है. कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने जातिगत जनगणना की मांग के साथ-साथ आरक्षण में बदलाव की मांग की है, तो नेता प्रतिपक्ष और कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने इसे लेकर प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी है. इसमें उन्होंने लिखा है कि बिना आंकड़ों के सामाजिक न्याय के कार्यक्रम अधूरे हैं.

कांग्रेस की इस मांग को आम आदमी पार्टी का भी समर्थन मिल गया है. आम आदमी पार्टी के सांसद संजय सिंह ने कहा कि सभी विपक्षी पार्टियां जाति जनगणना की मांग कर रहीं हैं, इसलिए इसे कराया जाना चाहिए. गौरतलब है कि बिहार में सत्तारूढ़ जनता दल यूनाइटेड और राष्ट्रीय जनता दल पहले से ही जातिगण जनगणना की मांग कर रहे हैं, यूपी में मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी भी इस मांग को जोर-शोर से उठाती रही है. 

जातिगत जनगणना के समर्थक कहते हैं कि इससे नीतियां बनाने में मदद मिलेगी. वहीं, इसके विरोधियों का तर्क है कि ये समाज को बांटने वाला कदम है. जातिगत जनगणना की मांग क्यों हो रही है? इसका सियासी गणित क्या है? अगर ये जनगणना होती है तो इसका क्या असर हो सकता है? जातिगत जनगणना का इतिहास क्या है? इन सवालों के जवाब एक-एक कर समझते हैं.

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क्या है जनगणना का इतिहास?

- भारत में पहली बार 1881 में जनगणना हुई थी. उस समय भारत की आबादी 25.38 करोड़ थी. तब से ही हर 10 साल पर जनगणना हो रही है.

- 1881 से 1931 तक जातिगत जनगणना हुई. 1941 में जातियों के आंकड़े जुटाए गए, लेकिन इन्हें सार्वजनिक नहीं किया गया.

- आजादी के बाद 1951 में जनगणना हुई थी. तब सरकार ने तय किया कि सिर्फ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आंकड़े ही जुटाए जाएंगे. इसके बाद से ही एससी और एसटी के आंकड़े जारी होते हैं.

राहुल गांधी कौन सी जनगणना की बात कर रहे?

- राहुल गांधी ने रैली में कहा कि 2011 में यूपीए सरकार ने जातिगत जनगणना कराई थी, उसके आंकड़े सार्वजनिक किए जाने चाहिए.

- दरअसल, उस समय लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव ने जातीय जनगणना की मांग उठाई. तब केंद्र की कांग्रेस सरकार ने सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना कराने का फैसला लिया.

- सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना के लिए करीब साढ़े चार हजार करोड़ रुपये खर्च किए गए थे. 2016 में मोदी सरकार ने जातियों को छोड़कर बाकी सारे आंकड़े जारी कर दिए थे.

क्या अब जातीय जनगणना की जरूरत है?

- जातिगत जनगणना कराने के पक्ष में ये तर्क है कि 1951 से एससी और एसटी जातियों का डेटा जारी होता है, लेकिन ओबीसी और दूसरी जातियों के आंकड़े नहीं आते. इस कारण ओबीसी की सही आबादी का अनुमान लगाना मुश्किल है.

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- 1990 में केंद्र की तब की वीपी सिंह की सरकार ने दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग की सिफारिशों को लागू किया था. इसे मंडल आयोग के नाम से जानते हैं. इसने देश में ओबीसी की 52 फीसदी आबादी होने का अनुमान लगाया था.

- हालांकि, मंडल आयोग ने ओबीसी आबादी का जो अनुमान लगाया था उसका आधार 1931 की जनगणना ही थी. मंडल आयोग की सिफारिश पर ही ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण दिया जाता है.

- जानकारों का कहना है कि एससी और एसटी को जो आरक्षण मिलता है, उसका आधार उनकी आबादी है. लेकिन ओबीसी के आरक्षण का कोई आधार नहीं है.

आरक्षण की क्या है व्यवस्था?

- शुरुआत में आरक्षण की व्यवस्था सिर्फ 10 साल के लिए थी. उम्मीद थी कि 10 साल में पिछड़ा तबका इतना आगे बढ़ जाएगा कि उसे आरक्षण की जरूरत नहीं होगी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ.

- फिर 1959 में संविधान में आठवां संशोधन कर आरक्षण को 10 साल के लिए और बढ़ा दिया गया. 1969 में 23वां संशोधन कर आरक्षण बढ़ा दिया. तब से ही हर 10 साल पर एक संविधान संशोधन होता है और आरक्षण का प्रावधान 10 साल के लिए बढ़ जाता है.

- 1992 में सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण को लेकर बड़ा फैसला दिया था. अदालत ने कहा था कि सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से ज्यादा नहीं हो सकती.

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- कानूनन आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से ज्यादा नहीं हो सकती. अभी देशभर में एससी, एसटी और ओबीसी को जो आरक्षण मिलता है, वो 50 फीसदी की सीमा के भीतर है.

- फिलहाल देश में जातीय 49.5% आरक्षण है. ओबीसी को 27%, एससी को 15% और एसटी को 7.5% आरक्षण दिया जाता है. इसके अलावा आर्थिक रूप से पिछड़े सामान्य वर्ग के लोगों को भी आरक्षण 10% आरक्षण मिलता है.

- इस हिसाब से आरक्षण की सीमा 50 फीसदी के पार जा चुकी है. हालांकि, पिछले साल नवंबर में सुप्रीम कोर्ट ने आर्थिक रूप से पिछड़े सामान्य वर्ग से जुड़े लोगों को आरक्षण देने को सही माना था. इसे सही ठहराते हुए अदालत ने कहा था कि ये कोटा संविधान के मूल ढांचे को नुकसान नहीं पहुंचाता है.

बीजेपी क्यों नहीं मान रही जाति जनगणना की मांग?

- इसके लिए थोड़ा पीछे चलना होगा. जब बीजेपी बनी तब उसे ब्राह्मण और बनियों की पार्टी कहा जाता है. लेकिन राजनीति की सीढ़ी सिर्फ अगड़ी जातियों के दम पर नहीं चढ़ी जा सकती थी. 

- यही वजह थी कि 1985 में बीजेपी ने राष्ट्रीय कार्यकारिणी में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने के समर्थन में एक प्रस्ताव पास किया था. लेकिन बाद में पार्टी ने अपना रुख बदल लिया. कुछ समय बाद बीजेपी ने राम मंदिर मुद्दे पर वीपी सिंह की सरकार से समर्थन वापस ले लिया.

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-वीपी सिंह की 'मंडल' की राजनीति के जवाब में बीजेपी ने 'हिंदुत्व' का ऐसा दायरा तैयार किया, जिसमें सभी हिंदू शामिल थे, फिर चाहे वो किसी भी जाति के हों.

-माना जाता है कि अगर बीजेपी जातिगत जनगणना की मांग मानती है तो इससे हिंदू वोट बंट सकते हैं. इससे ओबीसी में तो उसकी पकड़ मजबूत हो सकती है लेकिन अगड़ी जातियों के नाराज होने का भी डर है. 

- बीजेपी ओबीसी वोटों को लुभाने के साथ-साथ सवर्णों को भी खुश रखना चाहती है. शायद यही वजह है कि 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले बीजेपी ने आर्थिक रूप से पिछड़ी ऊंची जातियों के लोगों के लिए भी 10% आरक्षण की व्यवस्था कर दी. 

केंद्र सरकार का क्या है रुख?

- 2018 में कैबिनेट मंत्री राजनाथ सिंह ने वादा किया था कि 2021 की जनगणना में ओबीसी जातियों की गिनती भी की जाएगी. हालांकि, बाद में केंद्र सरकार ने इससे इनकार कर दिया था.

- जुलाई 2022 में लोकसभा में जवाब देते हुए केंद्र ने साफ कर दिया था कि संवैधानिक प्रावधानों के तहत सिर्फ एससी और एसटी जातियों की गिनती ही की जा सकती है, ओबीसी की नहीं.

फिर भी जाति जनगणना हुई तो...?

- जातिगत जनगणना की मांग अक्सर विपक्ष ही उठाता है. फिर चाहे विपक्ष में कांग्रेस हो या बीजेपी. इसे करवाने की मांग उठाने वालों का कहना है कि इससे जो आंकड़े सामने आएंगे, उस आधार पर सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का फायदा उन तक पहुंचाया जा सकेगा जिन्हें इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है.

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- वहीं, इसके विरोध में तर्क दिया जाता है कि इससे समाज बंट जाएगा. इतना ही नहीं, एक डर ये भी सताता है कि अगर जनगणना में ओबीसी की आबादी ज्यादा निकलती है तो ज्यादा आरक्षण की मांग उठेगी और इससे 50 फीसदी की सीमा टूट सकती है.

आंकड़े जारी करने के पीछे ये है बड़ा डर!

- केंद्र सरकार संसद में कई बार कह चुकी है कि 2011 में जो सामाजिक-आर्थिक जातिगत जनगणना हुई थी, उसमें कई खामियां थीं, इसलिए उसके आंकड़े जारी नहीं किए जा सकते.

- 2021 में केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में बताया था कि 1931 में जब आंकड़े जुटाए गए थे तब जातियों की संख्या 4,147 थी. लेकिन 2011 में जातियों की संख्या 46 लाख से भी ज्यादा हो गई थी.

- केंद्र ने ये महाराष्ट्र का उदाहरण देते हुए बताया था कि यहां जातियों की जाति, जनजाति और ओबीसी जातियों की संख्या 494 थी, जो 2011 में बढ़कर 4.28 लाख से भी ज्यादा हो गई थी.

- इतना ही नहीं, 2015 में कर्नाटक की तत्कालीन सिद्धारमैया सरकार ने जातिगत जनगणना करवाई थी. लेकिन इन आंकड़ों को सार्वजनिक करने से कांग्रेस और बीजेपी, दोनों ही सरकारें बचती रहीं. 

- इंडिया टुडे मैगजीन में छपे एक लेख के मुताबिक, ऐसा इसलिए क्योंकि इस जनगणना में कथित तौर पर सामने आया कि राज्य के सबसे प्रभावशाली समुदायों- वोक्कालिगा और लिंगायतों की आबादी 10 फीसदी से भी कम है. इसलिए लिंगायत और वोक्कालिगा ने इस रिपोर्ट को सार्वजनिक न करने की चेतावनी दी थी.

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- इतना ही नहीं, इस जनगणना में कथित तौर पर ये भी सामने आया था कि कुल आबादी में 24 फीसदी हिस्सा अनुसूचित जाति का है जो उन्हें सबसे बड़ा समूह बनाता है. इससे वो और ज्यादा आरक्षण की मांग कर सकते हैं. अभी एससी को 15 फीसदी आरक्षण मिलता है.

 

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