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Census in India: भारत में जनगणना की शुरुआत होती है 1872 में। उसके बाद से इन डेढ़ सौ वर्षों में दो विश्व युद्ध हुए, फिर भी जनगणना टाली नहीं गई। लेकिन साल 2021 में जनगणना नहीं कराई जा सकी। अब जो हालात हैं, उनमें साल 2024 से पहले इसके पूरे होने के आसार नहीं दिख रहे। सेंसस यानी जनगणना में ऐसी देर से कुछ सवाल भी उठ रहे हैं। एक सवाल तो यही है कि क्या फर्क पड़ जाएगा, अगर कुछ साल की देर ही हो जाए? दूसरा सवाल यह है कि जनगणना में देर की जो वजहें सामने आई हैं, क्या उन्हें वाजिब कहा जा सकता है? आइए देखते हैं क्या है इसकी तस्वीर।

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सेंसस हर दस साल में एक बार कराया जाता रहा है। ऐसे में इसे कितना अर्जेंट कहा जा सकता है? फरवरी 2020 में उस वक्त के रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया और सेंसस कमिश्नर विवेक जोशी ने एक सर्कुलर जारी किया था। उसमें कहा गया था, ‘घरों की हालत और परिवारों को मिल रही सुविधाओं के बारे में बेसिक बेंचमार्क डेटा जुटाने का केवल एक जरिया है और वह है सेंसस।

इसके जरिए गांवों से लेकर कस्बों और शहरों में तमाम प्रशासनिक स्तरों पर मानव संसाधन की जो हालत है, उसकी जानकारी जुटाई जाती है। केंद्र और राज्य सरकारें इसका उपयोग योजनाएं बनाने और उन्हें अच्छी तरह लागू करने में करती हैं। इसके अलावा संसद, विधानसभाओं, पंचायतों और दूसरी लोकल बॉडीज के निर्वाचन क्षेत्रों के डीलिमिटेशन और रिजर्वेशन के लिए भी सेंसस के आंकड़ों का उपयोग किया जाता है।‘

इस सर्कुलर में खास बात है। इसमें यह नहीं कहा गया कि सेंसस जो है, वह बेंचमार्क डेटा का सोर्स है। इसमें कहा गया कि यह बेंचमार्क डेटा का एकमात्र सोर्स है।


रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया यह बात बढ़ा-चढ़ाकर नहीं कर रहे थे। नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वे सहित कोई भी बड़ा सर्वे हो, उसमें सेंसस के आंकड़ों को आधार बनाया जाता है। उसके आधार पर ही ऐसे सर्वे के सैंपल का स्वरूप तय किया जाता है। लोकसभा और विधानसभाओं में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए कितनी सीटें रिजर्व होंगी, यह इस बात पर निर्भर करता है कि सेंसस के मुताबिक आबादी में उनका कितना हिस्सा है।

साफ है कि सेंसस कोई मामूली मामला नहीं है। अब यही देख लीजिए कि नैशनल फूड सिक्योरिटी एक्ट कहता है कि ग्रामीण आबादी का 75 प्रतिशत तक हिस्सा और शहरी आबादी का 50 प्रतिशत तक हिस्सा इस एक्ट के तहत कवर होना चाहिए। इसमें यह भी कहा गया है कि जो आवंटन किया जाएगा, वह ‘सेंसस के मुताबिक आबादी का जो अनुमान है, उस पर आधारित होगा।’ साल 2011 में जो सेंसस हुआ था, उसके मुताबिक देखें तो करीब 81 करोड़ 50 लाख लोगों को नैशनल फूड सिक्योरिटी एक्ट के तहत कवर किया जा सकता है।

इसी तरह 2021 के लिए अनुमानित आबादी के आधार पर की गई एक कैलकुलेशन के मुताबिक, 92 करोड़ लोगों को एक्ट के तहत कवर किया जा सकता है। इसका क्या मतलब है? इसका मतलब यह हो सकता है कि जनगणना में देर होने से 10 करोड़ लोगों को फ्री या सब्सिडी वाला अनाज नहीं मिल पा रहा।

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अब आते हैं जनगणना में देर की वजहों पर। संसद में जब सवाल उठा कि सेंसस में देर क्यों हो रही है और इसे कब कराए जाने की संभावना है, तो सरकार ने जवाब दिया। सरकार ने कहा कि ‘कोविड महामारी के कारण सेंसस 2021 और इससे जुड़ी फील्ड एक्टिविटी को अगले आदेश तक टाल दिया गया है।’


ऐसा नहीं है कि सिर्फ भारत ने कोविड के चलते जनगणना टाल दी थी। यूनाइटेड नेशंस के आंकड़ों से पता चलता है कि कई देशों को ऐसा करने को मजबूर होना पड़ा। लेकिन सवाल यह है कि कितनी देर तक सेंसस टाला गया? हमारे पड़ोसी नेपाल का मामला देख लेते हैं। नेपाल में जून 2021 में जनगणना होनी थी। उसे उसी साल नवंबर तक के लिए टाला गया। बांग्लादेश ने अपने यहां होने वाली जनगणना जून 2022 तक के लिए टाल दी थी।

शायद ये देश कोविड से उतनी बुरी तरह प्रभावित नहीं हुए थे, जितना कि भारत पर असर पड़ा था। लेकिन अमेरिका की बात करें तो वहां 2020 में जनगणना कराई गई। ब्राजील में 2022 में करा ली गई। रूस और ब्रिटेन ने भी 2021 में सेंसस करा लिया था। ये सभी वे देश हैं, जिन पर कोविड की बहुत मार पड़ी थी। अकेले एशिया में ही 12 देशों ने कोविड पीरियड में सेंसस कराया है।

यह दलील दी जा सकती है कि साइज भी इंपॉर्टैंट है और नेपाल जैसे छोटे देश के मुकाबले एक बड़े देश में सेंसस कराना कोई हंसी खेल नहीं है। लेकिन फैक्ट कुछ और हैं। दुनिया में आबादी के लिहाज से जो 10 बड़े देश हैं, उनमें से 8 देशों में पिछले दो वर्षों में जनगणना होनी थी। इस कतार से अलग केवल पाकिस्तान और नाइजीरिया थे।

जिन 8 देशों में पिछले दो वर्षों में सेंसस होना था, उनमें सिर्फ भारत ऐसा देश है, जिसने जनगणना की प्रक्रिया पूरी नहीं की। बाकी 7 देशों में जनगणना हो गई। इन 7 देशों में इंडोनेशिया, ब्राजील और मेक्सिको भी हैं। इसका मतलब यह हुआ कि जनगणना कराने वालों में केवल विकसित देश नहीं हैं।


ऐसी अंतरराष्ट्रीय तुलना को किनारे करना चाहें तो वह भी कर लें, लेकिन जो देश में हुआ है, उसे कैसे नजरंदाज करें? मार्च 2020 से दिसंबर 2022 के बीच 12 राज्यों, केंद्र शासित क्षेत्र पुडुचेरी और राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में विधानसभा चुनाव कराए गए। 2021 में भारत की अनुमानित आबादी के हिसाब से देखें तो इसका मतलब यह हुआ कि इन इलाकों में देश की 55 प्रतिशत से ज्यादा जनसंख्या रहती है। और वहां चुनाव कराए गए।

चुनावों में कैसी रेलमपेल रहती है, यह किसी से छिपा नहीं है। क्या इसमें कोविड फैलने का खतरा कम रहता है? और एक-एक जनगणना कर्मचारी के अलग-अलग घरों में जाकर सवाल पूछने में कोविड का खतरा ज्यादा होता है? और इस बीच बसों, ट्रेनों, मेट्रो और तमाम जगहों पर पहले की तरह भीड़भाड़ भी रहने लगी है। लेकिन जनगणना नहीं कराई जा सकती।

यह सब समझना वाकई मुश्किल है। सेंसस से दूसरी जानकारियों के अलावा हमें यह भी पता चलेगा कि कितने घरों में बिजली, कुकिंग गैस और लैट्रिन है। यह भी कि कितने घरों में पाइप से पीने का पानी पहुंच रहा है। सरकारी आंकड़ों में तो इन सभी मामलों में काफी प्रगति होने की तस्वीर दिखाई जाती है। कुछ लोग इन पर सवाल भी उठाते हैं। क्या यह बेहतर नहीं होगा कि सरकार सेंसस के आंकड़े सामने रखे और सवाल उठाने वालों के मुंह बंद कर दे?

आवाज़: शबनम
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Census Counting in India | What are the limitations of census method? | जनगणना पद्धति की सीमाएं क्या हैं? |  Why is it important to be counted in the census? | भारत में जनगणना क्यों महत्वपूर्ण है?

(Hindi podcast from Navbharat Gold)

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