Caste Census: बिहार क्यों करा रहा जातिगत जनगणना, क्या होगा फायदा और क्या हैं नुकसान?
Bihar Conducting Caste Census - बिहार सरकार जातिगत जनगणना करा रही है. इससे पहले राजस्थान और कर्नाटक भी जातिगत जनगणना क ...अधिक पढ़ें
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Caste Census in Bihar: बिहार में जातिगत जनगणना का काम चल रहा है. इसके तहत विभागीय कर्मचारी डोर टू डोर जाकर जनगणना कर रहे हैं. जनगणना में कर्मचारियों के साथ शिक्षक और आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को भी लगाया गया है. जनगणना के तहत पहले चरण में मकानों पर नंबर डाले गए. वहीं, दूसरे चरण में लोगों से उनकी जाति पूछकर गणना की जा रही है. बता दें कि लंबे समय से बिहार समेत देश के कई राज्यों में जातिगत जनगणना की मांग उठ रही थी. साल 2011 में हुई जनगणना के बाद जातीय आधार पर रिपोर्ट बनाई गई थी, लेकिन उसे जारी नहीं किया गया.
बिहार से पहले राजस्थान और कर्नाटक में भी जातीय जनगणना हो चुकी है. बिहार में भी 7 जनवरी 2023 से जातिगत जनगणना की प्रक्रिया शुरू हुई है. इसके खिलाफ हिंदू सेना ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी. इसे शीर्ष अदालत ने खारिज कर दिया था. जातिगत या जातीय जनगणना होने की बात सुनकर सबसे पहले जो सवाल दिमाग में आता है कि ऐसा क्यों किया जा रहा है? फिर जातीय जनगणना कैसे होगी? अगर पूरी हो जाएगी तो ये कैसे पता लगेगा कि बिहार में किस जाति के लोगों की कितनी आबादी है? हम दे रहे हैं ऐसे ही कुछ सवालों के जवाब.
बिहार में क्यों की जा रही जातीय जनगणना
बिहार में ज्यादातर राजनीतिक दल जातीय जनगणना की लंबे समय से मांग कर रहे थे. उनका कहना है कि जातीय जनगणना होने से राज्य में रहने वाले दलित और पिछड़ा वर्ग के लोगों की सही संख्या पता चल जाएगी. इससे उन्हें आगे बढ़ाने के लिए विशेष योजनाएं बनाने में आसानी होगी. अगर सही जातीय जनसंख्या का पता होगा तो राज्य में उनके मुताबिक प्रभावी योजनाएं बनाई जाएंगी. बिहार विधानसभा और विधान परिषद में 18 फरवरी 2019 तथा 27 फरवरी 2020 को जातीय जनगणना कराने से जुड़ा प्रस्ताव पेश किया गया. इस प्रस्ताव को बीजेपी, राजद, जदयू समेत सभी दलों ने समर्थन दे दिया.
लोकसभा चुनाव 2024 से पहले जातिगत जनगणना के आंकड़े सार्वजनिक हो जाते हैं तो नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव को सबसे बड़ा फायदा हो सकता है.
केंद्र क्यों था जातीय जनगणना के खिलाफ
केंद्र सरकार बिहार में जीतिगत जनगणना कराए जाने के खिलाफ था. केंद्र ने इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा भी दायर किया था. इसमें केंद्र ने कहा था कि जीतिगत जनगणना नहीं होनी चाहिए क्योंकि जातियों की गिनती करना लंबा और कठिन काम है. इसके बाद भी नीतीश कुमार की सरकार ने जातीय जनगणना कराने का ऐलान कर दिया था. बिहार सरकार ने मई 2023 खत्म होने तक यह काम पूरा करने का वादा भी किया है.
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जातिगत जनगणना का राजनीतिक असर
अगर लोकसभा चुनाव 2024 से पहले जातिगत जनगणना के आंकड़े सार्वजनिक हो जाते हैं तो नीतीश और उनके उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव को सबसे बड़ा फायदा हो सकता है. इन दोनों ही नेताओं की पार्टियां बिहार में जाति की राजनीति करने के लिए ही पहचानी जाती हैं. इसके उलट संवेदनशील जातिगत जनगणना के आंकड़े मंडल और कमंडल की राजनीति के एक नए दौर को हवा दे सकते हैं. बिहार सरकार का ये भी कहना है कि गैर-एससी और गैर-एसटी से जुड़े आंकड़ों के ना होने से अन्य पिछड़ा वर्ग की जनसंख्या का सही अनुमान लगाना मुश्किल है. साल 1931 में हुई जनगणना के मुताबिक ओबीसी की आबादी 52 फीसदी आंकी गई थी. वहीं, जातिगत जनगणना की मांग करने वालों का कहना है कि एससी और एसटी को उनकी आबादी के आधार पर आरक्षण दिया गया था. वहीं, ओबीसी की सही संख्या पता नहीं होने के कारण उन्हें फायदा नहीं मिल पाया. लिहाजा, कोटा को संशोधित करने के लिए जाति आधारित जनगणना जरूरी है.
बिहार में कैसे हो रही जातिगत जनगणना
बिहार में जातिगत जनगणना के तहत पहले चरण में घरों की गिनती शुरू की गई. इसकी शुरुआत पटना के वीआईपी इलाकों से हुई थी. इस चरण में सभी मकानों को स्थायी नंबर दिया गया. दूसरे चरण में जाति और आर्थिक जनगणना का काम हो रहा है. इसमें लोगों की शिक्षा का स्तर, नौकरी, गाड़ी, मोबाइल, किस काम में दक्षता, आय के साधन, परिवार में कमाऊ सदस्यों की संख्या, आश्रितों की संख्या, मूल जाति, उपजाति, उप की उपजाति, गांव में जातियों की संख्या, जाति प्रमाणपत्र से जुड़े सवाल पूछे जा रहे हैं. जातीय और आर्थिक जनगणना कराने की जिम्मेदारी बिहार के सामान्य प्रशासन विभाग को दी गई है. जिला स्तर पर डीएम इसके नोडल पदाधिकारी नियुक्त किए गए हैं. इस पूरी प्रक्रिया पर 500 करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान है.
बिहार में जातिगत जनगणना के पहले चरण में सभी मकानों को स्थायी नंबर दिया गया. दूसरे चरण में जाति और आर्थिक जनगणना का काम हो रहा है.
बिहार के बाहर रहने वालों का क्या?
रोजगार के कारण लंबे समय से बिहार के बाहर किसी दूसरे राज्य में रहने वाले लोगों से टेलीफोन के जरिये संपर्क किया जा रहा है. इसके बाद उनके मकान पर भी संख्या दर्ज की जा रही है. दूसरे फेज में लोगों को जाति बतानी पड़ेगी और जातीय जनगणना का दूसरा फेस फिर सुचारू ढंग से चलेगा. इसमें एक घर के अंदर, जितने परिवार रहते हैं, उन सब के मुखिया का नाम दर्ज करना है. परिवार को परिवारिक नंबर मकान संख्या के तौर पर दिया जा रहा है.
क्या इससे कुछ नुकसान भी हो सकता है
राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक, जातिगत जनगणना से आरक्षण का मुद्दा फिर तूल पकड़ सकता है. इसके होते ही फिर देश में तूफान खड़ा हो सकता है. अगर इससे आरक्षण के मुद्दा को हवा मिली तो ‘अपर कास्ट’ इसके खिलाफ खड़ा हो सकता है. दरअसल, जातिगत जनगणना से आरक्षण बढ़ा तो सबसे ज्यादा नुकसान अगड़ी जातियों के लोगों को ही होगा. ऐसे में ये पूरा मामला नए सिरे से अगड़ों-पिछड़ों में ध्रुवीकरण करा सकता है, जिसका असर वोट बैंक पर भी होगा. मोटे तौर पर देश के कई राज्यों में इस तरह की आवाज उठ रही है, लेकिन सबसे ज्यादा मुखर तरीके से बिहार में इसके पक्ष में माहौल भी बन रहा है और इसका सियासी लाभ लेने की भी कोशिश दिख रही है.
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